लोकसभा चुनाव 2024 :सरदार पटेल तो नेहरू की वजह से नहीं बन सके पीएम, नीतीश की राह में कौन बन रहा रोड़ा
-कुमार दुर्गेश
1947 के बाद से ही कई लोगों की कसक है कि नेहरू की वजह से सरदार पटेल प्रधानमंत्री नही बन सके। कुर्मी समाज के लोगों को यह अफसोस ज्यादा रहता है। यह कसक उत्तर प्रदेश के कुर्मी समाज के लोगों में तो और ज्यादा है। आर्थिक, शैक्षणिक रूप से बिहार के मुकाबले ज्यादा सक्षम होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के कुर्मी समाज के लोग कभी सत्ता में अपने समाज के किसी व्यक्ति को शीर्ष स्थान पर नहीं बिठा सके।
महामना रामस्वरूप वर्मा और बेनी प्रसाद वर्मा इस समाज में सबसे ज्यादा ऊंचाई प्राप्त करने वाले नेता रहे हैं। सीएम पद के लिए जब मुलायम और अजीत सिंह में ठनी थी तो बेनी बाबू मुख्यमंत्री बनने से चूक गए हैं। जो भी हो, हर किसी के मुकद्दर में सिकंदर होना नहीं होता है।
लेकिन उत्तर प्रदेश का कुर्मी समाज इस पर प्रधानमंत्री चुनेगा। यह लगभग तय है कि नीतीश कुमार फूलपुर से चुनाव लड़ेंगे। यह फूलपुर जो नेहरू बनाम लोहिया को लड़ते हुए देखा है, वीपी सिंह को देखा है, वह अब देश बचाने की लड़ाई लड़ते हुए नीतीश कुमार को देखेगा। किंतु सवाल इससे ज्यादा बड़ा है।
उत्तर प्रदेश के कुर्मी समाज को तय करना है कि क्या वो राजनीति की बारीकियां ब्राम्हणों की तरह, भूमिहारों की तरह, बनियों की तरह अपने हितों को समझता है? क्या उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की राजनीति की नई धारा का नेतृत्व करने के लिए तैयार है?
जी हां! नीतीश जी सिर्फ फूलपुर से चुनाव ही नहीं लड़ेंगे बल्कि उत्तर प्रदेश में उनके सान्निध्य में कई नए लोग राजनीति की शुरुआत करेंगे। जेडीयू इतनी लोकसभा सीटों पर गठबंधन में जरूर लड़ेगा जितनी Aristocrat Politician की पार्टी अपना दल को सीटें नहीं मिलती है।
जिस मोदी सरकार के दौर में देश के ओबीसी खास कर पढ़े लिखे कुरमी समाज को सबसे ज्यादा सरकारी नौकरियों का नुकसान हुआ है, उस समाज के लोगों के सामने राजनीति का विकल्प दिया जाए तो निश्चित तौर पर निर्णय लेना चाहिए कि इस रास्ते में जो भी आए उसे राजनीतिक रुप से निपटाना चाहिए।
नीतीश कुमार के रास्ते में कोई कुर्मी समाज का ही व्यक्ति आए तो उसके खिलाफ कैसा राजनीतिक सलूक किया जाना चाहिए, यह तय करने का वक्त आ गया है। क्योंकि नीतीश की धारा सामाजिक न्याय की धारा है। सामाजिक न्याय की धारा किसान, पशुपालक, कामगार, बेरोजगार और महिलाओं की धारा है। जबकि पूंजीवाद तो बनियों की धारा है। इसलिए अब सरदार पटेल को लेकर आह करने की जरूरत नहीं है, बल्कि निर्णय लेने का समय है।
कई लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि उत्तर प्रदेश के कुर्मी नेताओं का रुख क्या होगा? समाज का तो रुख नीतीश की तरफ यूपी में बिहार से भी ज्यादा उत्साह से भरा हुआ है। भला हो भी क्यों न, ऐसा यदि नरेंद्र मोदी को पीएम बनाने के लिए सारी व्यवसायिक जातियां एक हो सकती हैं तो नीतीश के नाम पर किसानी जातियां क्यों नहीं एक हो सकती है? इसमें बुराई क्या है?
किंतु नीतीश कुमार की जाति समूह का नेता यदि सामाजिक चेतना के खिलाफ जाएगा तो हमें कहना पड़ेगा कि सियासत में बाजीगरी नहीं जानते तो चुप ही रहिए। यदि हैसियत आंख में आंख मिला कर अपने वर्ग के हितों की हिफाजत करने लायक नहीं है तो इस रास्ते में मत आइए।
मनुवाद की पालकी ढोने का नहीं, बल्कि यह समय किसानियत और इंसानियत की बात करने का है। नीतीश कुमार सिर्फ दिल्ली नहीं लखनऊ पर भी नजर गड़ा चुके हैं। चूके होंगे सरदार, नीतीश नहीं।
लेखक सामाजिक चिंतक हैं।