चुनार की मिट्टी…
सामाजिक न्यााय और सामाजिक समरसता की जिंदा मिसाल थे रामबुलावन सिंंह
-छुआछूत की भावना उनके पास फटक भी नहीं सकी
-पत्नी भी पढ़ी-लिखी नहीं थींं, लेकिन जागरूक इतनी कि देहदान का निर्णय ले लिया
राजेश पटेल, चुनार/मिर्जापुर (सच्ची बातें)। चुनार की मिट्टी में कुछ न कुछ तो खास है। इसे कोयले की आंच में तपाएं तो फौलाद से भी मजबूत ईंटें बन जाती हैं। टन-टन, खन-खन करती क्राकरी बन जाती है। शायद मिट्टी की ही विशेषता है कि यहां की धरती में रामबुलावन सिंह जैसे लोग भी पैदा हुए, जिन्होंने खुद तो कॉलेज का मुंह नहीं देखा, लेकिन जब मौका आया तो भव्य कॉलेज बनवा दिया। ताकि क्षेत्र के बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए दूर शहर न जाना पड़े।
रामबुलावन सिंंह नरायनपुर ब्लॉक के शिवराजपुर गांव के निवासी थे। पढ़ा-लिखा न होने के कारण उनकी जन्मतिथि के बारे में सही जानकारी तो नहीं है, हां वर्ष 1922 था। जवान हुए तो आर्य समाज की विचारधारा से प्रभावित हुए। बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से। ज्योतिबा फुले, राजर्षि छत्रपति साहूजी महाराज, महात्मा गांधी तथा बाबा साहेब डॉ. आंंबेडकर की विचारधारा से भी वह बहुत प्रभावित थे।
पहले बात करते हैं कॉलेज की
बाबू रामबुलावन सिंह तथा उनकी पत्नी श्रीमती रमपत्ती देवी में कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं था। शायद इसी कारण से दोनों शिक्षा के महत्व को समझते थे। इनके जीवन में एक दुःखद घटना हो गई। इनके पौत्र राजदीप का अपहरण कर अपराधियों ने उनकी हत्या कर दी। राजदीप बाल्यावस्था में ही थे। इस घटना ने उनको झकझोर कर रख दिया। समय के साथ जब इस दुख से कुछ उबरे तो कहा कि राजदीप होता तो पता नहींं क्या बनता, क्या न बनता। उसकी याद में ऐसा कुछ कर दिया जाए कि क्षेत्र के बच्चे पढ़-लिखकर इंसान के साथ रोजी-रोटी कमाने लायक बन जाएं।
उस समय कैलहट के आसपास इंटर कॉलेज तो बहुत थे, लेकिन इसके आगे की पढ़ाई के लिए बालिका महाविद्यालय कोई नहीं था। ईट भट्ठा का व्यवसाय था। आर्थििक स्थिति ठीक-ठाक थी, सो 1998 में राजदीप के नाम पर बालिका महाविद्यालय की स्थापना कर डाली। 2000 में उद्घाटन भी हो गया। तब से लेकर आज तक यह महाविद्यालय चल रहा है। हजारों बच्चे हर साल ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री इस कॉलेज से लेते हैं। अब यह राजदीप महिला महाविद्यालय से राजदीप महाविद्यालय बन चुका है। मतलब को-एजुकेशन हो गया है। इनके बेटे तथा दिवंगत राजदीप के पिता इंजीनियर आरबी सिंंह इसकी देखरेख करते हैं।
सामाजिक समरसता
यदि छुआछूत सही है तो कुछ भी गलत नहीं है। इस सूत्रवाक्य को रामबुलावन सिंह ने अपने जीवन में उतार लिया था। मरते दम तक इस पर अडिग रहे। एक बार की बात है, रामबुलावन सिंह से मिलने कुछ लोग उनके कैलहट स्थित आवास पर आए थे। बातचीत में जल्दबाजी कर रहे थे। लोगों ने पूछा कि इतनी भी जल्दी क्या है। इस पर रामबुलावन सिंह ने कहा कि फलां आदमी के यहांं तेरहवीं है। पूड़ी खाने जाना है। वह फलां व्यक्ति जाति का चमार था। लोगों ने कहा कि अरे भइया चमार की पूड़ी खाने जाएंगे। उन्होंने कहा कि पूडी तो गेहूं के आटा की बनती है। इसमें जाति कहां से आ गई। फिर किसी की कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं हुई। वह उठे और चमार के तेरहवीं की पूड़ी खाने चले गए।
एक और घटना का जिक्र जरूरी है। उनके ही गांव शिवराजपुर के सरजू प्रसाद थे। चमार जाति के थे। सरजू प्रसाद मजदूरी करके अपना परिवार चलाते थे। गांंव के रिश्ते में वह रामबुलावन सिंह के चाचा लगते थे।। सरजू की एक बेटी थी। उसका नाम कलावती था। वह रामबुलावन सिंंह को भैया कहती थी। उसकी शादी जमाालपुर ब्लॉक के भोकरौध गांंव में हुई। रामबुलावन सिंह उसे अपनी छोटी बहन मानते थे। जब जमालपुर ब्लॉक के शेरवांं की ओर जाते, भोकरौध में उसके घर जरूर जाते। बार-बार आने-जाने के कारण भोकरौध के लोग रामबुलावन सिंह को कलावती का सगा भाई समझने लगे थे। इनको भी चमार के रूप में ही जानते थे।
छत्रपति साहुजी महाराज का प्रभाव
बाबू रामबुलावन सिंह छत्रपति साहुजी महाराज की विचारधारा से बहुत प्रभावित थे। एक बार की बात है। संघ का प्रचारक होने के नातेे उनका शेरवांं आना-जाना ज्यादा ही रहता था। वहां पर चमार जाति के एक व्यक्ति से मुलाकात हुई। सड़क पर उनकी जमीन थी। रामबुलावन सिंह ने कहा कि आपकी जमीन की लोकेशन ठीक है। यहां पर चाय की एक दुकान खोलिए। इससे घर-गृहस्थी ठीक से चलने लगेगी। उस व्यक्ति ने कहा कि चमार हूं, मेरेे हाथ से बनी चाय पिएगा कौन। रामबुलावन सिंंह ने कहा कि सड़क पर आने-जानेे वाले लोग चाय पीने के पहले आपकी जाति नहीं पूछेंगे। रही बात जो लोग परिचित हैं, उनकी इच्छा होगी तो पिएंगे, नहीं होगी तो नहीं पिएंगे। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। दूसरे क्या सोचते हैंं या सोचेंगे, इसकी चिंता करने वाला व्यक्ति कमजोर होता है। आप कमजोर नहीं हैं। उस व्यक्ति ने चाय की दुकान खोली, पहली चाय रामबुलान सिंह ने खुद कैलहट से जाकर पी।
घर में भी सामाजिक न्याय का सिद्धांंत ही चलता था
रामबुलावन सिंह की पत्नीी रमपत्ती देवी भी पढ़ी-लिखी नहीं थीं। 1950-60 में जब छुआछूत की प्रथा जारी थी। लोग कथित रूप से नीची जाति के व्यक्ति के छू जाने मात्र से खुद को अपवित्र मानने लगते थे। उस दौर में भी किसी भी जाति का हो या किसी भी धर्म का, रामबुलावन सिंहं के घर में ठहर (चौका में) पर बैठकर थाली में ही भोजन करता था। रमपत्ती देवी उन बर्तनों को साफ भी करती थीं। वह भी पढ़ी-लिखी नहींं थीं और ऐसे गांव (भवानीपुर) से आई थीं, जहां ब्राह्मण ज्यादा संख्या में हैं। लेकिन सामाजिक समरसता का संस्कार उनमें कूट-कूट कर भरा था। उनके लिए सारे लोग एक समान थे। उनमेंं समाज के लिए जागरूकता इस कदर थी कि स्वेच्छा से देहदान कर दिया था। पहली जनवरी 2022 को निधन होने के बाद उनके शरीर को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को सौंंप दिया गया।
Bhut achhi beacha tei Babu Ram ji uche bechar tha ase logo ka jrurat hai shbe