बिरहा में आज भी कायम है गुरु परंंपरा
महाभारत काल से है बिरहा का संबंंध, बिहारी को माना जाता है बिरहा का आदि गुरु
राजेश पटेल, मिर्जापुर (सच्ची बाातें)। पूर्वांचल में रहने वाला बिरहा न सुना हो, ऐसा शायद ही कोई होगा। हर गायक टेरी से बिरहा का समापन करता है। एक टेरी देखिए-
गुरु बिहारी गुरु पत्तू गुरु चैबर गगन क तारा,
काशी बुल्लू सुखनंदन गुलशन में गुलहजारा,
प्रभाकर जब ले प्राची में रही…
जोखन कलम के ऊपर बरसे नूर सुधाकर,
प्रभाकर जब ले प्राची में रही…।
इस टेरी में जो नाम लिखे गए हैं, यूं ही नहीं हैं। बिरहा परंपरा के जनक व वाहक हैं। कवि सुखनंदन सिंह से सुपुत्र कवि वेद प्रकाश सिंह कहते हैं कि महाभारतकाल से चली आ रही लोक गायन शैली बिरहा को काशी में प्रवर्तक जन्मदाता के रूप में गुरु बिहार के अष्टछाप शिष्यों ने बिरहा के छंदों की रचना वेद, पुराण, महाभारत, रामायण के सहारे करके लोक जनमानस को जीवंत रखने का कार्य किया।
गुरु बिहारी के शिष्य पत्तू खलीफा के अक्षयवर अखाड़े के प्रख्यात कवि सुखनंदन सिंह के लिखेे गानों को काशी, बुल्लू, रामविलास पांडेय, रामनरायन यादव, छोटे लाल यादव, गीता त्यागी, अनीता राज, कविता कृष्णमूर्ति, नीलम सिंह, रामनारायण यादव उनके सुपुत्र बृजमोहन यादव जैसे पत्तू गुरु के अखाड़े में प्रतिभाशाली लेखकों और गायको की भरमार है। उसी कड़ी में एक और कड़ी जुड़ने की खुशी है।
इस समय गुरु सुखनंदन कवि के बड़े सुपुत्र वेद सिंह व दूसरे सुपुत्र पप्पू सिंह अखाड़े की गरिमा बढ़ा रहे हैं। वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय कुश्ती के कोच गुरु मनोहर पहलवान की लेखनी को गाने वाले सभी बिरहा गायकोंं का समर्पण इस घराने को लेकर है।
बिरहा पर शोध करने वालेे डॉ. मन्नू यादव बताते हैंं कि गोचरण और कृषिजीवी संस्कृति में भारत की सबसे समृद्धशाली लोक गायन शैली बिरहा का संबंध महाभारत काल से है। पानी की खोज में वहां से यहां यत्र तत्र सर्वत्र गए यादव समाज के लोगों ने जिन-जिन नदियों के किनारे अपना बसेरा बनाया, उनके मनोरंजन का साधन विरह से उत्पन्न राग बिरहा बनकर बदलता रहा।
बदलते परिवेश में बिरहा के स्वरूप को काशी में गुरु बिहारी ने अखाड़े की परंपरा बनाकर के आज से लगभग डेढ़ 2 सौ साल पहले अखाड़े का रूप दिया। तब से अब तक इस बिरहा में गुरु बिहारी के कुल आठ शिष्यों सहित कुछ कजरी के अखाड़े भी समाहित हुए। जैसे जय जाखाड़, जद्दू लौटन हबीब उल्लाह, आसी अखाड़ा, दिलमहमद अखाड़ा, बिहार में मौला दालगजन का अखाड़ा, प्रयाग में स्वामी गीतानंद अखाड़ा, दयाराम अखाड़ा और मूरत अखाड़ा प्रसिद्ध हैं।
काशी में जिन्हें आदि गुरु बिहारी कहा जाता है, उनके प्रमुख आठ शिष्यों में गुरु शिष्य परंपरा के अनुसार गुरु पत्तू, गुरु गणेश, रम्मन, सरयू, अंबिका, शिवचन्द, अकलू , मोलयी और मुशयी के घराने में आदि गुरु बिहारी के साथ अखाड़े के प्रथम पगड़ीदार के साथ वर्तमान कवियों का नाम जोड़कर बिरहा के अंत में छाप देने की परंपरा आज भी कायम है।
इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए गत रविवार को बिरहा जगत में पत्तू छैबर अखाड़े के प्रख्यात कवि स्व. सुखनंदन सिंह के छायाचित्र को साक्षी मानकर ग्राम पिपरिया, चकिया, चंदौली के मनोज सिंह पटेल ने ईमामन कवि एवं जगत नारायण सिंह का आशीर्वाद लेकर यह वचन दिया कि इस अखाड़े में आजीवन एक सच्चे सिपाही की तरह रहेंगे।
इस कार्यक्रम के दौरान स्वदेशी जागरण मंच काशी प्रांत के संयोजक सत्येन्द्र सिंह, ओमप्रकाश सिंह बहुआर, विजय सिंह, रणवीर सिंह पिड़खीर, मुड़हुआं प्रधान, नन्दू सिंह ढेलवासपुर एवं तमाम गायक तथा वाद्य कलाकार उपस्थित रहे।