गंगा हम भारतीयों के लिए मात्र नहीं, मां के समान है
-मोहन सिंह
सार
पौराणिक मान्यता के अनुसार गंगा दशहरा ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष के दशमी तिथि को मनाया जाता है। इस वर्ष 30 मई मंगलवार को गंगा दशहरा मनाया जाएगा। इस दिन इक्ष्वाकु वंश के राजा भगीरथ के तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रम्हा के कमंडल से गंगा जी का पृथ्वी पर अवतरण हुआ। गंगा भारतीयों के लिए महज एक नदी नहीं, मां समान है। हमारे ऋषियों ने नदियों-तीर्थों को देवत्व दर्जा इस लिए प्रदान किया कि-उनकी हर तरह से सुरक्षा-संरक्षण की हमारी नैतिक जिम्मेदारी तय की जा सके। ये पवित्र स्थल हमारे सभ्यता-संस्कृति के उद्भव-विकास का प्रेरणास्रोत बने।
विस्तार से…
पौराणिक मान्यता के अनुसार गंगा दशहरा ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष के दशमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन इक्ष्वाकु वंश के राजा भगीरथ के तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रम्हा के कमंडल से गंगा जी का पृथ्वी पर अवतरण हुआ।
राजा भगीरथ को गंगा के पृथ्वी पर अवतरण के लिए घोर तपस्या करना पड़ी, ताकि वे अपने पुरखों का तर्पण कर सकें।
आज भी सनातन धर्म में प्रत्येक हिंदू परिवार के जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार गंगा तट पर ही सम्पन्न होते हैं। गंगा के मोक्षदायिनी-जीवन दायिनी मान्यता की कई धार्मिक और वैज्ञानिक कारण भी है।
गंगा की राह और दुनिया
हिमाचल के गोमुख से निकली गंगा के बंगाल की खाड़ी तक के प्रवाह क्षेत्र के वैज्ञानिक अध्ययन से पता चलता है कि जो नदी जितने ऊंचे शिखर से निकलती है, मैदानी इलाके में उसकी धारा का वेग उतना ही तीव्र होता है।
नदी की यह तीव्र धारा जल में ऑक्सीजन की मात्रा की वृद्धि करता है। गंगाजल में मौजूद ऑक्सीजन की अधिक मात्रा ही गंगाजल को लंबे अरसे तक कीटाणु मुक्त रखता है।
गंगोत्री से निकलने के बाद गंगा रुद्र प्रयाग में भगीरथ और मंदाकिनी से मिलती है। इसके बाद देवप्रयाग में भगीरथ और अलखनंदा का संगम होता है, आगे यह सम्मिलित धारा गंगा नाम से प्रवाहित होती है।
इस दौरान गंगा की जलधारा में हिमालय पर्वत पर पाई जाने वाली अनेक जड़ी-बूटियों का औषधीय अक्स मिश्रित हो जाता है। इस वजह से गंगाजल को स्वाथ्य रक्षक-जीवनदायिनी जल माना जाता है। यज्ञीय कर्मकांड और धार्मिक अनुष्ठान भी इस गंगाजल से सम्पन्न से होते है।
गंगा के क्षेत्र प्रवाह रूपी शरीर तंत्र का वैज्ञानिक अध्ययन से यह तथ्य सामने आता है कि- हिमालय को अगर गंगा का मष्तिष्क माने तो बंगाल की खाड़ी तक- यानी पैर तक की प्रवाह यात्रा में गंगा नदी में हर एक किलोमीटर की दूरी के बाद एक सेंटीमीटर का प्राकृतिक ढलान प्राप्त होगा।
इस वजह हिमालय के उतुंग शिखर से निकलने वाली गंगा का वेगवती धारा अविरल परवाह के साथ अपने गंतव्य की ओर प्रवाहित होती है।
गंगा का प्रवाह और जलधारा
पूज्य मदन मोहन मालवीय जी अंग्रेजों के इस छल को समझे और इसके विरुद्ध आंदोलन भी किया। यह सुनिश्चित करने के लिए की गंगा की अविरलता किसी भी सूरत में प्रभावित न हो। गंगा महासभा के मुखिया मालवीय जी और अंग्रेजों के बीच हुआ लिखित समझौता आज भी मौजूद है।
आज यह समझौता कितना लागू है- यह जांच और शोध का विषय है। अपनी सरकारों का रुख भी अंग्रेजी हुकूमत से कोई अलग नहीं रहा। रही-सही कसर टिहरी बांध बनने के बाद पूरी हो गई। आज गंगा दो बड़े बांधों एक ओर से टिहरी दूसरी ओर से फरक्का बांध के बीच फंसी कराह रही है।
गंगा के प्रवाह रूपी शरीर की ये सारी बाधाएं जाहिर है मानव निर्मित है। गंगा की स्वाभाविक गति को कई जगह-तोड़ने-बांधने से गंगा की वेगवती धारा की तीव्रता में कमी आई, इस कारण गंगाजल में ऑक्सीजन की मात्रा की मात्रा घट गई।
नतीजतन गंगाजल की पवित्रता में भी कमी आई। अब लंबे अरसे तक गंगा जल को किसी पात्र में संग्रह कर कीटाणु मुक्त नहीं रखा जा सकता है। ऐसी तमाम वजहें हैं कि गंगा हमारे लिए अब वैसी मोक्षदायिनी-जीवनदायिनी नहीं रही।
गंगा किनारे बसे औघोगिक अपशिष्ट, कूड़े कचरे- बिना शोधित जल-मल का गंगा में बहाव से गंगा की सेहत आज बेहद प्रदूषित हो चुका है।
ये वही अंग्रेज हैं-जो एक जमाने में गंगा के मुहाने से हमारी बहुमूल्य थाती खींचते थे और टेम्स नदी के मुहाने पर निचोड़ लेते थे। क्या हम इतिहास की इस भूल से कोई सबक सीख पाये हैं? अपनी सभ्यता- संस्कृति की रक्षा और सनातन धर्म के निरंतर प्रवाह को बनाये रखने के लिए भी आज गंगा का अविरल प्रवाह सुनिश्चित करना समय की मांग है। इस काम को सामुदायिक व्यवहार से हम जितना जल्दी करें, उतना ही बेहतर।
(अमर उजाला से साभार)