गांधी आज भी जिंदा हैं, जानें कहां ?
झारखंड का एक जनजातीय समुदाय रोज अन्न-जल ग्रहण करने के पहले करता है तिरंगे व गांधी जी की पूजा
गांधी आज भी जिंदा हैं, जानें कहां…
सत्य में। सत्याग्रह में। सादगी में। शांति में। शाकाहार में। संस्कार में। अहिंसा में। अपरिग्रह में। चरखे में। तिरंगे में। ताना भगतों में। ताना भगतों में इसलिए कि गांधी के बताए इन रास्तों पर आज सिर्फ व सिर्फ टाना भगत समुदाय ही चल रहा है। इनकी दिनचर्या की शुरुआत ही चरखा वाले तिरंगे व बापू की पूजा के साथ शुरू होती है।
जी हां, यह सही है कि झारखंड का एक समुदाय सिर्फ 15 अगस्त व 26 जनवरी को नहीं, पूरे साल झंडा प्रतिदिन फहराता है और अपने आंगन में उसकी पूजा करता है। हल्दी, दूब, आम पल्लव, गोबर आदि से जब तिरंगे की पूजा की जाती है तो पूरा परिवार साथ होता है। बात हो रही है ताना भगत समुदाय की।
आदिवासी समुदाय में शामिल ताना भगत का तिरंगा प्रेम औरों से बेशक अलग है। हां इस तिरंगे में चक्र नहीं होता। इसके स्थान पर चरखा होता है। चरखा को यह समुदाय आजादी की लड़ाई का प्रतीक मानता है।
रोज होती है बापू की पूजा
प्रकृति की गोद में बसने वाले टाना भगत परिवार के लोग सादा जीवन जीते हैं। मांसाहार से दूर रहते हैं। आजादी के इतने वर्षों बाद भी इन पर गांधी जी का प्रभाव है। वे खादी के कपड़े पहनते हैं और सिर पर गांधी टोपी लगाते हैं। तिरंगे और धरती मां की पूजा करते हैं। ये लोग रोज प्रभात फेरी भी निकालते हैं। साथ ही गांधी बाबा की भी पूजा करते हैं।
इनकी प्रार्थना..
‘हे धर्मेश, दुनिया में शांति बनाए रखना। हिंसा, झूठ और बेईमानी की जरूरत मानव समुदाय और समाज को न पड़े। धर्मेश, हमें छाया देते रहना, हमारे बाल-बच्चों को भी। खेती का एक मौसम गुजर रहा है, दूसरा आने वाला है। हम खेती के समय हल-कुदाल चलाते हैं। संभव है हमसे, हमारे लोगों से कुछ जीव-जंतुओं की हत्या भी हो जाती होगी। हमें माफ करना, धर्मेश।
क्या करें, घर-परिवार का पेट पालने के लिए अनाज जरूरी है । समाज-कुटुंब का स्वागत नहीं कर पाएं, उन्हें साल में एक-दो बार भी अपने यहां नहीं बुलाएं तो अपने में मगन रहने वाले जीवन का क्या मतलब होगा? इन्हीं जरूरतों की पूर्ति के लिए हम खेती करते हैं। खेती के दौरान होने वाले अनजाने अपराध के लिए हम आपसे क्षमा मांग रहे हैं। धर्मेश, हमें कुछ नहीं चाहिए, बस बरखा-बुनी समय पर देना, हित-कुटुंब-समाज से रिश्ता ठीक बना रहे, सबको छाया मिलती रहे, और कुछ नहीं’।
आजादी की लड़ाई के दौरान इनकी प्रार्थना सभाओं में संदेश दिया जाता था कि धर्मेश ने उनसे कहा है कि अंग्रेजों और जमींदारों का राज खत्म कर दो। उन्हें देश की धरती से खींच कर बाहर निकाल दो। अंग्रेज, महाजन, जमींदार, दिकू लोग भूत हैं, इनको टानो, खींचों अपनी धरती से। धर्मेश को उरांव समाज देवता मानता है। टाना भगत उरांव जनजाति से ही आते हैं।
टाना भगत रोजाना तिरंगे की पूजा करते हैं. उनकी सुबह की शुरुआत तिरंगे की पूजा के साथ ही होती है. उनके आंगन में पूरे वर्षभर तिरंगा फहरता रहता है. तिरंगा को ही टाना भगत अपना देवता मानते हैं और गांधी को अपना आदर्श मानते हैं.
परिवार के सभी सदस्य स्नान करके हर दिन अपने घर के आंगन में लगे तिरंगा झंडे के सामने मौजूद होकर हर दिन अपने राष्ट्र प्रेम की अविरल धारा का प्रवाह जारी रखते हैं.बगैर तिरंगे की पूजा और भारत माता की वंदना किए ये समुदाय अन्न का एक दाना भी ग्रहण नहीं करता है.
स्वाधीनता की छटपटाहट
प्रकृति से अतिरिक्त लगाव और स्वाधीनता की रक्षा की व्याकुलता जनजातीय स्वभाव व संस्कार की मूल्य विशेषता है। बिहार के छोटानागपुर व संथाल परगना में रह रही जनजातियाँ भी इन्हीं को अपने स्वभावगत गुणों में समेटे हुए हैं। स्वाधीन रहने की छटपटाहट ने ही अनेक बार अनेक जनजातियों को अंग्रेजी शासन एवं सांमती व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह का शंखनाद फूंकने को बाध्य किया था। जिसमें वीर बुधू भगत, बिरसा भगवान एवं जतरा भगत का नाम सर्वोपरि हैं।
जानिए टाना भगत समुदाय के बारे में
जतरा (उराँव) भगत ने वैष्णव विचाराचारा के तहत समाज सुधार का आन्दोलन को चलाते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाया। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में छोटानागपुर के पठारों में एक व्यक्ति बिरसा मुंडा पूरी शक्ति के साथ अंग्रेजी सत्ता के विरोध एवं जनजातीय जीवन में सामंती कुरीतियों के नाजायज हस्तक्षेप को उखाड़ फेंकने के लिए सार्थक पहल कर रहा था।
बिरसा का आंदोलन जनजातीय समाज एवं संस्कृति के अस्मिता की रक्षा हेतु दृढ़ संकल्पित था। इस आन्दोलन में इनके साथ न केवल मुंडा जनजाति बल्कि उराँव जनजाति भी साथ थे। 9 जून 1900 को रांची जेल में संदेहजनक परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। इसके बाद छोटानागपुर की घाटियों में जगह-जगह आन्दोलन समाप्त तो नहीं हुआ, लेकिन थोड़ा शिथिल पड़ता जा रहा था।
इधर अंग्रेजों के द्वारा धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक शोषण उत्पीड़न के कारण उराँव जनजातियों के बीच असंतोष गहराया जा रहा था। अंग्रेजों के इस व्यवहार से उराँवजन त्रस्त थे। अपनी तरफ से विद्रोह भी करते थे लेकिन संगठित रूप से प्रयास नहीं होने के कारण सफल नहीं हो पाते थे।
इसी बीच उराँव जनजातियों के बीच जतरा उराँव एक नवयुवक धार्मिक, सामाजिक पुर्नरचना का संकल्प लिए टाना भगत आन्दोलन का महामंत्र लेकर सामने आया। वही युवक बाद में जतरा भगत के रूप में प्रसिद्ध हुआ। तत्कालीन बिहार अब झारखंड के जिलान्तर्गत विशुनपुर प्रखंड के चिंगरी (नवाटोली) में सितम्बर (आश्विन) महीने के अष्टमी तिथि काे 1888 में जतरा का जन्म हुआ था। उनकी माता कोडल उराँव तथा पिता का नाम लिबरी था।
समाज सुधार
जतरा भगत ने लोगों के बीच मांस न खाने, मदिरा पान न करने, पशु बलि रोकने, परोपकारी बनने, यज्ञोपवीत धारण करने, भूत प्रेत के अस्तित्व न माने आँगन में तुलसी चौरा स्थापित करने, गो सेवा करने, जीव हत्या न करने तथा सभी से प्रेम करने का उपदेश देना शुरू किया।
जानते ही हैं कि जनजातीय लोगों में मांस भोजन का सामान्य भाग है और टोना टोटकों में अधिक विश्वासी उराँव जनजातियों ने उनकी बात सरलता से माननी शुरू कर दी और देखते–देखते उनके समर्थकों की अच्छी संख्या हो गई। जतरा भगत के इस पंथ का नाम टाना पड़ा और इन्हें मानने वाले लोग टाना भगत कहलाये। मूलत: टाना मंत्र अहिंसा और असहयोग का ही था।
टाना भगतों ने अंग्रेजों की मालगुजारी, चौकीदार टैक्स भी देना बंद कर दी। ब्रिटिश सरकार टाना आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव से थर्रा उठी। सरकार ने 1916 के प्रारंभ में जतरा भगत पर नियोजित ढंग से उत्तेजक विचारों के प्रचार का अभियोग लगाकर उनके साथ अनुयायियों को गिरफ्तार कर लिया था कोर्ट द्वारा उनको वर्ष भर पर की कड़ी सजा देते हुए जेल में बंद कर खूब प्रताड़ित किया। फलस्वरूप जेल से बाहर आने के 2 – 3 माह बाद ही 28 वर्षीय जतरा भगत का देहावासन हो गया।
स्वतंत्रता आन्दोलन
जतरा भगत के नहीं रहने पर उनके समर्थकों ने अंग्रेजों से संघर्ष का दायित्व संभाला। टाना भगत आंदोलन को ठप नहीं होने दिया बल्कि यह आंदोलन जो धार्मिक, सांस्कृतिक रूप में था कालान्तर में बिहार के जनजातीय क्षेत्र में प्रखर एवं आदर्श सम्पूर्ण गांधीवादी जनान्दोलन साबित हुआ। टाना भगत अंग्रेजी शासन का शांतिपूर्ण एवं अहिंसक तरीके से विरोध करते रहे। जैसे जमीन की मालगुजारी नही देना तथा अंग्रेजों से जनजातीय क्षेत्र को छोड़कर चले जाने को कहना शामिल रहा। सन 1917 तक जतरा भगत से प्रेरित टाना भगत अहिंसक तरीके का आन्दोलन पाने ढंग से चलाते रहे।
सन 1918 में महात्मा गाँधी रांची आये। उस समय के उत्साही कांग्रेसी कायकर्ताओं ने टाना भगतों काे गाँधी से मिलवाया। इस पहली ही भेंट से अभिभूत होकर ये टाना भगत उनके समर्थक हो गये। गाँधीजी का आन्दोलन और टाना भगत आंदोलन अपनी चारित्रिक विशेषताओं के बीच आश्चर्यजनक समानता के कारण दोनों ही आन्दोलन अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्षरत हो गये।
1920 के बाद भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में टाना भगतों का योगदान स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि टाना भगत आन्दोलन कहीं गाँधी जी से भी अधिक गांधीवादी था।
विदेशी कपड़ों का बहिष्कार
जूलाई 1921 में जब कांग्रेसी ने विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करने का आह्वान किया तब टाना भगत सबसे आगे थे। दिसंबर 1921 में गया में कांग्रेस की राष्ट्रीय बैठक हुई उसमें गाँधी सहित कांग्रेस के सभी उच्च स्तरीय नेता उपस्थित थे। उसमें टाना भगतों ने भाग लिया, कुछ ने तो रांची से पैदल ही गया तक की यात्रा की।
इस बैठक में भाग लेने के बाद ये टाना भगत पूर्ण रूप से भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ गये। ये टाना भगत रामगढ़ कांग्रेस, गया कांग्रेस में भाग लिए तथा समय पर कांग्रेस ने जो भी रणनीति अंग्रेजों के विरुद्ध बनायी उसके क्रियान्वयन में टाना भगतों ने पूर्ण सहयोग दिया। कांग्रेस के विदेशी कपड़ों के बहिष्कार तथा खादी कपड़ा पहनने के आह्वान स्वरूप इन लोगों ने अपने हाथों चरखे पर सूत काटकर स्वनिर्मित खादी का उपयोग शुरू कर दिया था। 1927 में साइमन कमीशन के विरोध में भी भाग लिया।
सरदार के सत्याग्रह से सीख
सरदार बल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में बारडोली (गुजरात) में किसानों द्वारा मालगुजारी न देने के सत्याग्रही से प्रभावित होकर इन टाना भगतों ने भी अंग्रेज सरकार को मालगुजारी नहीं देने का अपनी माटी में भी सफल प्रयोग किया। हालाँकि उनको इस आन्दोलन की बड़ी महंगी कीमत चुकानी पड़ी। इनकी जमीन की मालगुजारी न देने के कारण अंग्रेजों ने नीलाम कर दी तब भी इनका अहिंसक आन्दोलन जारी रहा।
ये कहते थे कि गाँधी बाबा का राज होगा तब हम अपनी जमीन वापस लेंगे। टाना भगत गांधी जी के पक्के समर्थक हो गये। खादी का कपड़ा पहन सिर पर गाँधी टोपी और कंधे पर तिरंगा झंडा रखकर कांग्रेस के लिए काम करना उनका मूल उद्देश्य था।
19 – 20 मार्च 1940 को रामगढ़ कांग्रेस की बैठक में बहुत अधिक संख्या में लालू भगत, एतवा भगत, विश्वामित्र भगत के नेतृत्व में विशुनपुर, कूडु, मांडर, घाघरा के टाना भगतों ने सक्रिय भाग लिया था। उस समय इन लोगों ने गाँधी जी को आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए अपने तरफ से सौ रूपये की थैली भेंट दिया था। गांधीजी ने इनलोगों से कहा कि आपलोग स्वाधीनता आन्दोलन में साथ दीजिए जब अपना स्वराज्य हो जाएगा तब सभी कष्ट दूर हो जाएगा।
अवज्ञा आन्दोलन
गाँधी जी द्वारा अवज्ञा आन्दोलन का आह्वान किया गया। जगह –जगह पूरे देश के यह आन्दोलन व्यक्तिगत सत्याग्रह द्वारा चलाया जा रहा था। इस कार्य में भी टाना भगत आगे रहे। रती टाना भगत ने कहा था कि भाईयों एवं बहनों यह समय केवल पैसा से सहयोग करने की नहीं है बल्कि सभी आदमी दोगुने उत्साह से व्यक्तिगत रूप से सत्याग्रह में साथ दें।
17 अगस्त 1942 को रांची में अधिक संख्या में टाना भगतों ने प्रदर्शन में भाग लिया बहुत से लोग गिरफ्तार हुए। भारतवर्ष के स्वतंत्रता आंदोलन में ऐसा कोई जनजातीय समुदाय नहीं मिलेगा जो इस आंदोलन में गांधीजी के साथ कंधा से कंधा मिलाकर अपना सर्वस्व त्याग कर संघर्ष किया हो ऐसे में पूरे देश में जनजातीय उदाहरण में टाना भगत ही सामने आते हैं।
वास्तव में टाना भगतों का जो आदर्श और सिद्धांत था जैसे – शुद्ध, सात्विक, त्यागपूर्ण जीवन जीना, अहिंसा का प्रयोग आदि सभी गाँधी जी के सामाजिक, राजनैतिक दर्शन में ठीक बैठे इसलिए गांधीजी टाना भगतों के बीच लोकप्रिय हुए।और टाना भगतों ने उनके आह्वान पर देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।
-सच्ची बातें