कला-संस्कृति व साहित्य में गहरी रुचि थी श्रद्धेय हरिराम द्विवेदी जी की
-शेरवां गांव के मूल निवासी थे हरि भइया, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने 2005 में सम्मानित किया ‘साहित्य भूषण’ से
-आकाशवाणी द्वारा उनके निर्देशन में आयोजित कार्यक्रम कृषि निष्ठा को लोग आज भी नहीं भूले
-स्टूडियो से बाहर निकालकर खेत-खलिहानों में आकाशवाणी को पहुंचाया था हरी भइया ने
राजेश कुमार दुबे, शेरवां/जमालपुर (सच्ची बातें)। हरि भइया की पहचान सिर्फ उनकी आवाज नहीं थी। उनकी पहचान मृदुभाषी, व्यवहार कुशल विद्वान के रूप में भी थी। शेरवां गांव में जन्मे हरिराम द्विवेदी की कला-संस्कृति व साहित्य में गहरी रुचि थी। आकाशवाणी को स्टूडियो से बाहर निकालकर गांवों-खेतों में ले जाने की सोच हरि भइया की ही थी। शेरवां में उनके निर्देशन में आयोजित कृषि निष्ठा कार्यक्रम को लोग आज भी याद करते हैं।
आइए जानते हैं हरी भइया के बारे में
विन्ध्य पर्वत शृंखला की गोद मे बसे शेरवां गांव में साधारण ब्राह्मण शुकदेव के आंगन में खिले गुलाब की सुगंध से पूर्वांचल ही नहीं, देश विदेश गमक उठा था। जहां एक ओर हिन्दी साहित्य भोजपुरी पतझड़ के दौर से गुजर रहा था तो हरिराम द्विवेदी ने पलास के लाल फूल की तरह लोक साहित्य परम्परा को आगे बढाने का कार्य किया।
हिन्दी साहित्य के जरिए क्षेत्र का पताका पूरे देश में फैलाया। शेरवां गांव के पंडित शुकदेव द्विवेदी के आंगन में तीसरे पुत्र के रूप में 12 मार्च 1936 को जन्म लेने वाले हरिराम द्विवेदी को वर्ष 2005 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मान से भी नवाजा गया था।
इनकी प्राथमिक शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल व जूनियर हाईस्कूल चौकिया, हाईस्कूल की परीक्षा कमच्छा वाराणसी, इण्टरमीडिएट पीडीएनडी इण्टरमीडिएट कॉलेज चुनार, बीए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी, एमए काशी विद्यापीठ व बीएड काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से किया था
लोक संगीत में रुचि रखने वाले हरिराम द्विवेदी सन 1958 में आकाशवाणी इलाहाबाद में ग्रामीण कार्यक्रम कृषि जगत में प्रवेश कर हरि भइया के नाम से विख्यात हुए थे। सन् 1967 से 72 तक आकाशवाणी रामपुर व गोरखपुर में सेवा की।
फिर आकाशवाणी वाराणसी में रेडियो कलाकार के रूप में सन् 1976 में आ गए। लगभग तीस वर्षों तक आकाशवाणी की प्रसारण सेवा में संबंध रखने के बाद मार्च 1994 में सेवानिवृत्त हो गए।सेवानिवृत्ति के बाद वाराणसी स्थित अजमतगढ़ पैलेस मोतीझील में रह कर जीवन यापन कर रहे थे।
इनकी दो पुत्रियां व दो पुत्र हैं। हरिराम द्विवेदी हरि भइया साहित्यिक सांस्कृतिक एवं कलात्मक लेखन में अभिरुचि रखते थे। साथ ही हिन्दी एवं लोक भाषा भोजपुरी के स्थापित कवियों में प्रतिष्ठित थे। हरि भइया को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से राहुल सांकृत्यान पुरस्कार 1983 के लिए सम्मानित किया गया था। हिन्दी साहित्य सारस्वत सम्मान, लोकपुरुष सम्मान, साहित्य अकादमी के भाषा सम्मान, 2015 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से डिस्टिंगविस एल्यूमनस अवार्ड, विश्व भोजपुरी संघ द्वारा पुरबिया गौरव सम्मान, वर्ष 2011 में विश्व भोजपुरी सम्मेलन द्वारा भोजपुरी का सर्वोच्च सेतु सम्मान सहित अनेक सम्मान से नवाजे गए थे। हरि भइया के बेटे राजेश द्विवेदी, अरुण द्विवेदी ने बताया कि पिता जी को पद्मश्री व पद्मविभूषण सम्मान के लिए पत्रावली शासन स्तर पर तैयार हो रही थी, उनका सपना अधूरा रह गया है।
बता दें कि हरि भइया की एक दर्जन से अधिक कुल चौदह हिन्दी व भोजपुरी गीतों का हिन्दी बाल साहित्य कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। इसमें नदिया गइल दुबराय, अंगनइया, जीवन दायिनी गंगा, पानी कहै कहानी, हाशिए का दर्द, पातारी वीर, फुलवारी, रमता जोगी, बैन फकीरा, लोकगीत का दोहावली, हे देखा हो, हिन्दी गजलों देशभक्ति का संग्रह में परिवेश विविधा सहित विविध विषयों पर लिखी रचनाओं का संग्रह है।
हरि भइया शेरवां से लगायत बनारस में काशी के शाश्वत साहित्यिक परम्परा के लोकमन कवि थे। हरि भइया को दो दशक पूर्व आकाशवाणी पोर्ट ब्लेयर के बुलाने पर अंडमान निकोबार सहित कलकत्ता बंदरगाह पर भी अपनी कविता की छवि को वहां के जनमानस तक पहुंचाया है।लोकगीत की हर विधा कजरी, सोहर, खेलवना, लोरी, झूमर, सहरवा, लाचारी, चइता, फाग गीतों पर मजबूत पकड़ रखते थे। हरि भइया के गीत शादी विवाह मे जब मां बहने गातीं है कि बसवा से ए बेटी डोलवा फनाला होई जाला घर सुनसान, बिटिया के बाबा से पूछा न कइसन मड़वा क बिहान इन गीतों को सुनकर आखों में आंसू आ जाते हैं। भोजपुरी फिल्म बार्डर में भी इनके गीत काफी लोकप्रिय हुए हैं। बाबू हो शुगनवा दे द, माई हो ललनवा दे द, बहिनी हो बिरनवा दे द, देशवा की खातिर अपनी गोदी क ललनवा दे द… जैसे देश भक्ति गीतों से भरा गीत हरिराम ने गाया है।