प्रारंभिक जीवन
गरीब के घर पैदा हुए, दिल था इनका बहुत अमीर।
वंचितों का सदा रखते ध्यान, बेची नहीं कभी जमीर।
मिर्जापुर जनपद के चुनार तहसील के नियामतपुर कलॉ गांव में सहदेव सिंह व श्रीमती दुलेशरा देवी के घर छह जुलाई 1945 को जन्मे यदुनाथ सिंह बचपन से अन्य बच्चों से अलग स्वभाव के थे। खेल में भी साथी बेईमानी करते थे तो लड़ जाते थे। मारपीट तक पर उतारू हो जाते थे। इसका खामियाजा उनको घर में कई बार मार खाकर भुगतना पड़ता था। हां, पढ़ने में शुरू से ही काफी तेज थे। यदुनाथ सिंह ने माधव विद्या मंदिर पुरुषोत्तमपुर से वर्ष 1959 में जूनियर हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की, उसमें भी गणित में विशेष योग्यता, तभी इनकी विलक्षण प्रतिभा का पता चला। ये चार भाइयों में सबसे छोटे थे। बड़े भाई छविनाथ सिंह, डॉ. रविनाथ सिंह व हरिनाथ सिंह। तीनों शिक्षक। डॉ. रविनाथ सिंह तो मुम्बई विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर थे।
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पिताजी खांटी किसान। खेती भी मामूली ही थी। मां विशुद्ध गृहिणी। यदुनाथ सिंह की शादी 15 साल की उम्र में ही खैरा गांव की 11 साल की लड़की प्रभावती देवी के साथ हो गई थी। बचपन से ही क्रांतिकारी स्वभाव वाले यदुनाथ सिंह को पत्नी का मोह कभी बांध नहीं सका। इनका ध्यान पढ़ाई पर ही लगा रहा।
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हाईस्कूल की शिक्षा के लिए रामनगर स्थित पीएन सिंह राजकीय इंटर कॉलेज में एडमिशन कराया। दसवीं की भी परीक्षा संस्कृत में विशेष योग्यता के साथ प्रथम श्रेणी से पास की। इसके बाद बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से वर्ष 1963 में रसायन शास्त्र में विशेष योग्यता के साथ द्वितीय श्रेणी से प्री यूनिवर्सिटी की परीक्षा को पास किया। बीएचयू से बीएससी के बाद बीएचयू में ही केमिकल इंजीनियरिंग में एडमिशन ले लिया। इस दौरान अपने खर्च के लिए उनको कभी-कभी रिक्शा भी चलाना पड़ता था, लेकिन इसमें वे जरा भी नहीं शर्माते थे। मिलनसार थे। यारों के यार थे। क्रांतिकारी विचार थे। लिहाजा छात्रों का एक पूरा समूह इनके साथ रहता था। ग्रेजुएशन के दौरान ही इनकी रुचि राजनीति की ओर बढ़ने लगी और छात्रसंघ चुनाव में सक्रिय भूमिका निभाने लगे। छात्रों के मुद्दों पर आंदोलन करने के कारण ये केमिकल इंजीनियरिंग की फाइनल परीक्षा नहीं दे सके।
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उन्होंने ऐसी राह पर आगे बढ़ना शुरू कर दिया था, जिस पर कांटे ही कांटे थे। न रहने का निश्चित ठौर, न खाने का ठिकाना। पुलिस हमेशा पीछे पड़ी रहती थी। इसी दौरान फीस माफी आंदोलन, पथकर माफी आंदोलन भी शुरू हो चुका था। इस दौरान साथियों का मनोबल बढ़ाने के उद्देश्य से अक्सर एक घटना का जिक्र करते थे। वे अपने दाहिने हाथ की कलाई दिखाते थे। कलाई से करीब दो इंच ऊपर जले का एक निशान था। कहते थे कि इसे मां के सामने ढिबरी की लौ पर रखकर जीवन भर अन्याय का विरोध करने का संकल्प लिया है। वे अपने सामने किसी के साथ भी अन्याय होता नहीं देख सकते। जिस समय ढिबरी की लौ पर हाथ रखकर यह संकल्प लिया था, उस समय उनकी उम्र करीब 20 वर्ष रही होगी।
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ढिबरी की लौ पर हाथ रखकर जो संकल्प मां के सामने लिया, उसे हमेशा निभाया। कई घटनाएं हैं, जिनको आगे इसी पुस्तक में क्रमवार पढ़ेंगे। यदुनाथ सिंह को देखकर हिम्मत का भी हौसला बढ़ जाता था। पिटाई करते-करते पुलिस के जवान थक जाते थे, लेकिन वे अपने इरादों से टस से मस नहीं हुए। आखिर अपने सपने को पूरा होता देखना जो था। सपना था-अन्यायमुक्त समतामूलक समाज की स्थापना। जहां न जाति का भेद हो न अमीरी-गरीबी हो। मजहबी बैर भी नहीं। यही कारण था कि उनके साथियों में मुसलमान भी थे तो सरदार भी। राजपूत तो डोम भी। मल्लाह थे तो ब्राह्मण भी। बिंद-बियार, यादव, कुर्मी, कुशवाहा, नाई, धोबी, मुशहर सभी जातियों के लोग इनके दीवाने थे। एक आवाज पर सैकड़ों की भीड़ जमा हो जाती थी।
“जनवादी बनिए, किसी पार्टी से संबंध न रखो क्योंकि चुनाववादी नेता सभी स्वार्थी होते जा रहे हैं। समय है देश को बदलने का, भ्रष्टाचार को कुचलने का और ईमानदारी पर चलने का।’’
-यदुनाथ सिंह (31 जनवरी 1971 वाराणसी जिला जेल से)
-सच्ची बातें (www.sachchibaten.com)
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