स्मृति शेषः फिर भी जलती रही सामाजिक न्याय की मशाल
राजेश पटेल
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17 अक्टूबर 2009 का दिन वंचित समाज के लिए बड़ा मनहूस साबित हुआ था। इसी दिन दूसरी आजादी की लड़ाई के महानायक व सामाजिक न्याय के असल पैरोकार डॉ. सोनेलाल पटेल को काल ने हमसे छीन लिया था। लेकिन, उन्होंने ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी’ के लिए युद्ध का जो शंखनाद किया था, उसकी गूंज अभी भी सुनाई दे रही है। उनके द्वारा सामाजिक न्याय की जलाई गई मशाल की लौ बुझी नहीं है। उनके सिपाही इस मशाल को लेकर जनजागरण करने में जुटे हैं।
डॉ. सोनेलाल पटेल साधारण व्यक्ति नहीं थे। उनमें असाधारण प्रतिभा थी। साहस का कोई सानी नहीं। उन्नत ललाट। उस पर स्वाभिमान की चमक। लंबी और घनी मूंछें उनका व्यक्तित्व बयां करती थीं। वह किसी के आगे झुके नहीं। कोई भी बाधा सामने आई, रुके नहीं। ऐसा इसलिए संभव था क्योंकि उन्होंने कमेरा समाज को उसका हक दिलाने की लड़ाई में कभी किसी से समझौता नहीं किया।
वह जानते थे कि कमेरा समाज की सभी समस्याओं की चाबी सत्ता है। जब तक सत्ता में नहीं आएंगे, तब तक इस तबके को उसकी हिस्सेदारी नहीं मिल सकती। लोकसभा व विधानसभा में पहुंचने का कई बार प्रयास किया, लेकिन दुख है कि उनके इसमें सफलता नहीं मिली।
सफलता न मिलने का भी कारण है। कमेरा समाज की शासन-सत्ता में हिस्सेदारी के लिए उन्होंने जो लड़ाई छेड़ी थी, उसका रास्ता लंबा है। वह इस लम्बे रास्ते को नाप कर लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाना भी चाहते थे, लेकिन समय को शायद यह मंजूर नहीं था।
पहला हमला 1999 में सत्ता प्रायोजित था। प्रयागराज के पीडी टंडन पार्क में पुलिस ने उनके शरीर की एक भी हड्डी साबूत नहीं छोड़ी थी। इसी स्थिति में उनको जेल में भी रहना पड़ा था, लेकिन उस हमले से खुद की इच्छाशक्ति की बदौलत उबरने में सफल हो गए थे। लेकिन पुलिस द्वारी तोड़ी गई हड्डियों को जोड़ने के लिए जितने रॉड लगे थे, उनका वजन करीब 12 किलो था।
कानपुर में 2009 में दीपावली के दिन हुई स़ड़क दुर्घटना में उनकी मौत के बाद अंत्येष्टि हुई तो राख से ये लोहे निकले, तब लोगों का पता चल सका कि मिट्टी के शरीर में हडिड्यां तो लोहे की ही थीं।
उनके निधन के बाद आज उनकी लड़ाई को बेटी अनुप्रिया पटेल आगे बढ़ा रही हैं। हालांकि उनकी एक बेटी पल्लवी पटेल भी राजनीति में हैं, लेकिन उनका नाम इसलिए नहीं लिया जा रहा है कि उन्होंने एमएलए बनने के लिए पिता डॉ. सोनेलाल पटेल के विचारों को कुचल दिया।
हालांकि एमएलए बनने के लिए डॉ. सोनेलाल पटेल ने भी 2007 के विधानसभा चुनाव में समझौता किया था, वह भी विचारधारा के मामले में धुर विरोधी भारतीय जनता पार्टी के साथ, लेकिन उन्होंने भाजपा के चुनाव चिह्न पर चुनाव नहीं लड़ा। विधानसभा में कमेरा समाज की आवाज बुलंद करने के लिए उन्होंने भाजपा से दुश्मनी भूलकर दोस्ती की थी। इसी भाजपा के शासनकाल में ही 1999 में पुलिस ने उनकी हड्डियों का चूरमा बनाया था। इसके ठीक उलट पल्लवी पटेल ने तो बाकायदा समाजवादी पार्टी का चुनाव चिह्न ही अंगीकार कर लिया है।
डॉ. सोनेलाल पटेल की लड़ाई को आगे बढ़ाने का काम अनुप्रिया पटेल उन्हीं के रास्ते पर चलते हुए कर रही हैं। अनुप्रिया भी पिता की ही तरह सोचती हैं। आखिर संसद या विधानसभा में नहीं रहेंगी तो कमेरी समाज की बात वहां उठाएगा कौन। असल सवाल तो यह है। वैचारिक लड़ाई में कभी-कभी अपने भी बेगानों जैसा बरताव करते हैं। इसको भी झेलना है। आज जो लोग भाजपा से गठबंधन पर अनुप्रिया पटेल की आलोचना करते हैं, उनको डॉ. सोनेलाल पटेल की नीति को समझना चाहिए।
बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए समय के हिसाब से कुछ समझौते भी करने पड़ते हैं। इतिहास भी इस तरह के उदाहरण से भरा पड़ा है। जब दुश्मन से भी समझौता करना पड़ा है। ताजा उदाहरण बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। वह वैचारिक रूप से धुर विरोधी भारतीय जनता पार्टी तथा लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के साथ समय-समय पर मिलते हैं, बिछुड़ते हैं। तभी वह सामाजिक न्याय की विचारधारा पर पूरा नहीं तो कुछ हद तक ही सही, काम करने में सफल भी हो रहे हैं। लाख टके का सवाल यह है कि बिहार सरकार का मुखिया नहीं होते तो क्या वह जातीय गणना करा पाते ? मांग तो वह भी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री थे तो कर रहे थे।
डॉ. सोनेलाल पटेल बिहार जाते थे तो नीतीश कुमार उनसे मिलते थे। कमेरा समाज की समस्याओं का हल सत्ता ही है, डॉ. सोनेलाल पटेल ने भी उनको समझाया था।
आज डॉ. सोनेलाल पटेल हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनके विचार जिंदा हैं। विचार तब तक नहीं मरते, जब तक उनका प्रचार-प्रसार करने वाला कोई एक बचा रहता है। उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल इस भूमिका को बखूबी निभा रही हैं। उनके साथ डॉ. साहब के समय के सैनिक भी हैं, और आज के युवा भी। अनुभव और जोश जब दोनों साथ हों तो आगे जीत ही दिखती है।