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मुठभेड़ की कहानी में ट्विस्ट : एक पिस्तौल-दो अपराध, यूपी पुलिस की ‘फ़र्ज़ी मुठभेड़’ का अदालत में ख़ुलासा

Sachchi Baten Wed, Apr 9, 2025

कानपुर पुलिस द्वारा एक कथित ‘मुठभेड़’ में दो लोगों के पैरों में गोली मारने के लगभग पांच साल बाद स्थानीय अदालत ने पाया कि जो हथियार पुलिस ने उनके पास से बरामद करने का दावा किया था, वह पुलिस मालखाने से ही लिया गया था. कोर्ट को पुलिस की गवाही में कई विरोधाभास मिले, सीसीटीवी फुटेज भी पेश नहीं किया गया.

उमर राशिद, नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार के आने के बाद से ‘पुलिस मुठभेड़’ अक्सर सुर्खियां बनाती हैं.

साल 2020 की एक रात पुलिस गश्ती दल एक बाइक को रोकता है. बाइक पर दो लोग सवार होते हैं. पुलिस उन्हें रुकने का संकेत देने के लिए टॉर्च का इस्तेमाल करती है. लेकिन बाइक नहीं रुकती और तेज़ी से आगे बढ़ जाती है. पुलिस उनका पीछा करती है. जब वे खुद को घिरा हुआ पाते हैं, तो बाइक छोड़कर पैदल भागने की कोशिश करते हैं.

पुलिस उन्हें आत्मसमर्पण करने को कहती है, लेकिन वे देसी कट्टों से पुलिस पर गोली चला देते हैं. पुलिस बाल-बाल बच जाती है और आत्मरक्षा में दोनों को पैरों में गोली मार देती है. पुलिस उनके पास से देसी कट्टे और चोरी का सामान बरामद करती है. आरोपियों के खिलाफ पुलिस पर जानलेवा हमले का केस दर्ज किया जाता है और उन्हें जेल भेज दिया जाता है.

लेकिन इस बार यह कहानी टिक नहीं पाई. यह साबित हो गया कि यह मुठभेड़ फर्जी थी.

कानपुर पुलिस द्वारा कथित ‘मुठभेड़’ में दो लोगों के पैरों में गोली मारने के लगभग पांच साल बाद, एक स्थानीय अदालत ने पाया कि जो अवैध हथियार पुलिस ने उनके पास से बरामद करने का दावा किया था, वह दरअसल पुलिस मालखाने (सबूतों को रखने की जगह) से निकाला गया था. यह हथियार 2007 के एक मामले का था.

इसका अर्थ यह हुआ कि वही हथियार दो अलग-अलग मामलों में 13 साल के अंतराल पर सबूत के रूप में पेश किया गया.

बीते 1 अप्रैल को अदालत ने कानपुर के रहने वाले कुंदन सिंह और अमित सिंह को सभी आरोपों से बरी कर दिया. अदालत ने माना कि पुलिस ने झूठे तरीके से उनके पास से हथियार बरामद करने का दावा किया था. अमित को पहले ही जमानत मिल गई थी, लेकिन कुंदन 2020 से जेल में बंद थे.

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनय सिंह ने कहा कि जिस तरह से 2007 के एक मामले (जिसका निपटारा 2018 में हुआ था) से जुड़े अवैध पिस्तौल को कुंदन और अमित के पास से बरामद दिखाया गया, उसने पूरे मामले को ‘संदिग्ध’ बना दिया. यह साफ दर्शाता है कि पुलिस ने उन्हें झूठा फंसाया. अदालत ने कहा कि इस मामले में शामिल पुलिस इंस्पेक्टर और पूरी पुलिस टीम के खिलाफ ‘विस्तृत और उच्च स्तरीय जांच’ जरूरी है.

जस्टिस सिंह ने कानपुर के पुलिस कमिश्नर को आदेश दिया कि वह खुद या किसी सक्षम अधिकारी के माध्यम से इस पूरे मामले की विस्तृत जांच करवाएं और तीन महीने के भीतर रिपोर्ट अदालत में प्रस्तुत करें. अगर जांच में यह साबित होता है कि पुलिस ने मुठभेड़ का झूठा मामला दर्ज करने के लिए अवैध रूप से मालखाने से हथियार निकाला था, तो संबंधित अधिकारी और उनकी टीम के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जाएगी.

पुलिस की कहानी: कैसे हुई मुठभेड़?

21 अक्टूबर, 2020 की रात को पुलिस इंस्पेक्टर ज्ञान सिंह के नेतृत्व में एक पुलिस टीम गश्त पर थी. वे मरियमपुर तिराहे पर वाहनों की जांच कर रहे थे. इस दौरान उन्होंने काकादेव इलाके से आ रही एक बाइक को रोका. बाइक पर दो लोग थे. पुलिस ने उन्हें रुकने का इशारा किया, लेकिन वे बाइक भगा ले गए और मरियमपुर अस्पताल की ओर बढ़ गए.

संदिग्ध गतिविधि देख पुलिस ने तुरंत अपनी जीप से उनका पीछा किया. वे दोनों काकादेव की ओर भागे. पुलिस ने लाउडस्पीकर पर उन्हें रुकने के लिए कहा, लेकिन वे आगे बढ़ते रहे और अर्मापुर की ओर मुड़ गए. पुलिस ने अर्मापुर थाने को सूचना दी. वहां इंस्पेक्टर अजीत कुमार वर्मा के नेतृत्व में पुलिस टीम ने बाइक को रोकने की कोशिश की, लेकिन वे भागकर अर्मापुर एस्टेट की ओर बढ़ गए.

करीब 500 मीटर तक दौड़ने के बाद, जब वे केंद्रीय विद्यालय क्रॉसिंग के पास घिर गए, तो उन्होंने बाइक छोड़ दी. पुलिस ने उन्हें आत्मसमर्पण करने के लिए कहा. लेकिन उन्होंने पिस्तौल निकालकर पुलिस पर दो गोलियां चला दीं. संयोग से पुलिसकर्मी बच गए.

पुलिस ने दोबारा आत्मसमर्पण के लिए कहा, लेकिन वे अपनी पिस्तौल दोबारा लोड करने लगे. मजबूरी में इंस्पेक्टर सिंह ने अपनी सर्विस पिस्तौल से उनके पैरों पर दो गोलियां चलाईं. वे गिर पड़े और दर्द से कराहने लगे. उनके दाहिने पैर के घुटने के नीचे से खून बह रहा था. पुलिस ने वाहन से कपड़ा निकालकर उनके घावों को बांधा.

उनकी पहचान कुंदन और अमित के रूप में हुई. पुलिस ने अमित की जेब से दो सोने की चेन और 1,000 रुपये (100-100 के दस नोट) बरामद किए. उसके दाहिने हाथ में 315 बोर का देसी कट्टा था, जिसमें एक जिंदा कारतूस था और एक खाली कारतूस पास में पड़ा था. कुंदन के पास से एक सोने की चेन और चेन का एक हिस्सा मिला. उसके हाथ में भी 315 बोर का देसी कट्टा था, जिसमें एक जिंदा कारतूस था.

अवैध हथियारों और अन्य सामान को सील किए गए प्लास्टिक बॉक्स में रखा गया. कुंदन और अमित को रात 11:20 बजे हिरासत में लिया गया. पुलिस ने एफआईआर में लिखा कि इस गिरफ्तारी में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और हाई कोर्ट के आदेशों का पालन किया गया.

इन दोनों पर हत्या के प्रयास और अवैध हथियार रखने के तीन मामले दर्ज किए गए. पुलिस ने दावा किया कि उनके पास से बरामद सोने की चेन चोरी और झपटमारी का हिस्सा थी. मामला 2022 में ट्रायल पर गया, जिसमें अभियोजन पक्ष ने 10 गवाह पेश किए. सभी पुलिसकर्मी थे. कोई स्वतंत्र गवाह नहीं था.

पुलिस की कहानी में खामियां

कोर्ट ने पुलिस की कहानी में कई खामियां पाईं.

पहली, पुलिस ने अपनी गवाही में यह नहीं बताया कि वे संबंधित पुलिस थाने से कब और कहां के लिए रवाना हुए थे. बरामदगी मेमो में इसका कोई ज़िक्र नहीं था. सात पुलिसकर्मियों की गवाही की जांच करने के बाद, अदालत ने कहा कि किसी ने भी अपनी रात की ड्यूटी के दौरान रवाना होने का समय या डिस्पैच रिपोर्ट नंबर नहीं बताया.

दूसरी, कोर्ट ने यह भी देखा कि पुलिस ने स्वतंत्र गवाहों को शामिल करने का ‘उचित प्रयास’ नहीं किया. जबकि केंद्रीय विद्यालय के सुरक्षा गार्ड मौके के पास थे और शिक्षकों के निवास भी नज़दीक थे. पुलिस ने उन सार्वजनिक गवाहों के नाम और पते भी नहीं बताए जिन्होंने कथित तौर पर गवाही देने से इनकार कर दिया था.

तीसरी, आरोपियों के वकीलों ने तर्क दिया कि यह अजीब बात है कि पुलिस के मुताबिक़, दो लोगों ने उन्हें मारने की नीयत से गोली चलाई, लेकिन कोई भी पुलिसकर्मी घायल नहीं हुआ और उनकी गाड़ियों को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचा.

मामले के शिकायतकर्ता, इंस्पेक्टर सिंह ने गवाही दी कि कुंदन और अमित ने पुलिस पर गोली चलाई थी. सिंह के मुताबिक, एक ने उन पर गोली चलाई और दूसरे ने इंस्पेक्टर वर्मा की पीठ पर. कोर्ट ने इस बयान को अविश्वसनीय पाया. कोर्ट ने कहा कि यह बयान ‘सामान्य और स्वाभाविक स्थिति’ के विपरीत है, जो उस समय उत्पन्न होती जब पुलिस ने आरोपियों को चारों ओर से घेर लिया होता.

कोर्ट ने यह भी कहा कि जब पुलिस ने संदिग्धों को घेरा था, तब पुलिस का सामना अपराधियों से होना चाहिए था, न कि उनकी पीठ उनकी ओर होनी चाहिए थी. अभियोजन पक्ष यह नहीं समझा सका कि इंस्पेक्टर वर्मा अपनी पीठ आरोपियों की तरफ़ करके क्यों खड़े थे.

जज सिंह ने कहा, ‘अगर वह अपनी पीठ आरोपियों की ओर किए खड़े थे, तो इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि पुलिसकर्मियों को उनसे कोई ख़तरा नहीं था. इसके अलावा कोई अन्य अनुमान नहीं लगाया जा सकता.’

चौथी, कोर्ट ने दो पुलिस इंस्पेक्टरों के बयानों में भी विरोधाभास पाया, जिन्होंने आरोपियों को पिस्तौल का इस्तेमाल करते हुए देखने का दावा किया था.

पांचवीं, कोर्ट ने यह भी पाया कि जिस जगह यह घटना हुई, वहां सीसीटीवी कैमरे लगे थे, लेकिन अभियोजन पक्ष ने कोई सीसीटीवी फुटेज रिकॉर्ड में पेश नहीं किया. कोर्ट ने कहा कि यह फुटेज स्पष्ट रूप से दिखा सकता था कि पुलिस टीम आरोपियों का पीछा कर रही थी या नहीं.

छठी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि पुलिस ने 21 अक्टूबर, 2020 को आरोपियों से जो पिस्तौल बरामद करने का दावा किया, वह पहले ही ‘1 CMM KNR 13.05.2014’ के रूप में चिह्नित की जा चुकी थी. यह पिस्तौल 2007 के एक आर्म्स एक्ट मामले में जब्त की गई थी, जिसमें आरोपी ऋषभ श्रीवास्तव को 25 सितंबर, 2018 को स्थानीय अदालत ने बरी कर दिया था.

नियमों के अनुसार, जब कोई अवैध हथियार बरामद होता है और उस पर मुकदमा खत्म हो जाता है, तो उसे नष्ट कर दिया जाना चाहिए. जस्टिस सिंह ने कहा, ‘किसी भी परिस्थिति में, यह संभव नहीं था कि यह अवैध हथियार 2020 में आरोपियों के पास से बरामद किया जाए.’

न्यायाधीश ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि पुलिस इंस्पेक्टर सिंह ने यह पिस्तौल मालखाने से या किसी अन्य तरीके से हासिल कर ली और आरोपियों को झूठे तरीके से फंसाने के लिए इसे बरामदगी के रूप में दिखा दिया. पुलिस यह भी नहीं बता पाई कि वह पिस्तौल, जो पहले पुलिस के कब्जे में थी, आरोपियों के पास कैसे पहुंची.

कोर्ट ने कहा, ‘ऐसी स्थिति में, अभियोजन पक्ष की यह कहानी कि आरोपी ने पुलिस पर जान से मारने की नीयत से हमला किया था, पूरी तरह से गलत साबित हो जाती है. अभियोजन पक्ष की कहानी इस मामले में भरोसेमंद नहीं है और अभियोजन द्वारा पेश किए गए गवाहों की गवाही से भी कोई भरोसा नहीं बनता.

(खबर द वायर से साभार)

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