The Constitutional Morality of Dr Ambedkar
राजनीति में भक्ति भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा
डॉ. भीमराव आंबेडकर भारतीय संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष रहे, जिन्होंने भारतीय संविधान की मौलिक और मूल संरचनात्मक ढांचा (Structural Framework) को तैयार किया। इन्होंने संविधान सभा में भारतीय संदर्भ में “सांवैधानिक नैतिकता” (Constitutional Morality) की बात की थी।
आज़ के संदर्भ में इसी ”सांवैधानिक नैतिकता”‘ की विवेचना करना चाहता हूं। ‘सांवैधानिक नैतिकता’ को किसी मूर्त अवस्था में आकलित नहीं किया जा सकता है, और इसे वैधानिक स्वरूप भी नहीं दिया जा सकता। लेकिन यह सांवैधानिक नैतिकता उसी तरह भारतीय संविधान और व्यवस्था में महत्वपूर्ण है, जैसे ‘प्राकृतिक न्याय’ (Natural Justice) बिना किसी लिखित अभिव्यक्ति के ही सभी लिखित ‘वैधानिक न्याय’ (Legal Justice) के निर्णयों पर प्रभावी रहता है, यानि सभी नियमों और निर्णयों को आच्छादित किए रहता है।
यह ‘सांवैधानिक नैतिकता’ भी इसी तरह तरंगित अवस्था (Wave Form) में रहकर भी शासन के सभी अंगों पर वास्तविक रूप में छाई रहनी चाहिए। अर्थात शासन के सभी अंगों यानि शासन के सभी चारों मौलिक एवं आवश्यक इकाईयों यथा विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और संवादपालिका (Media) पर प्रभावी रहना चाहिए। लेकिन इस ‘सांवैधानिक नैतिकता’ को संरचनात्मक ढांचा (Structural Framework) कौन देगा, जिसके अन्तर्गत इस ‘सांवैधानिक नैतिकता’ को अपना दिशा और दशा निर्धारित करना है, या करता रहना चाहिए?
अर्थात इस ‘सांवैधानिक नैतिकता’ के लिए वह कौन सा मौलिक और आधारभूत प्रेरणा होगी, जो उसे प्रेरित, या नियमित, या नियंत्रित करती रहेगी? यह भी एक मौलिक और महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस “सांवैधानिक नैतिकता” का प्रेरक कारक यानि संरचनात्मक ढांचा देने का का कार्य ‘मानवता’ (Humanity), ‘न्याय (Justice)’, ‘समता’ और समानता (Equality n Equity), ‘मुक्ति’ और ‘स्वतंत्रता (Liberty n Freedom)’, ‘बंधुत्व (Fraternity)’, ‘वैज्ञानिकता’ (Scientism), और ‘आधुनिकता’ (Modernity) ही करेगा। इसे दूसरे शब्दों में संविधान की उद्देशिका (Preamble) में निहित कहा भी जा सकता है।
जब संविधान की उद्देशिका में, या स्वयं संविधान में संशोधन किया जा सकता है, तो यह प्रश्न उठता है कि इनमें किस हद तक संशोधन किया जाना चाहिए? क्या संविधान भी बदला (संशोधित) जा सकता है? तो इसका स्पष्ट उत्तर होगा – हां, बदला (संशोधित) जा सकता है, परन्तु किस हद तक? जब संविधान में संशोधन का अधिकार भारतीय प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने वाली संस्था – भारतीय संसद को दिया गया है, तो इसे कौन रोकेगा, कैसे रोकेगा और क्यों रोकेगा? यह “क्यों” (Why) भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।
यहां भी सांवैधानिक नैतिकता ही एकमात्र विकल्प है, जो इसे किसी तार्किक सुनिश्चितता के साथ इसे रोक सकती है। ‘आधुनिकता‘ एक व्यापक अवधारणा का शब्द है, जो अपने में मानवता, वैज्ञानिकता और न्याय की व्यापकता को समाहित किए रहता है। कोई भी इस आधुनिकता यानि आधुनिकीकरण को पश्चिमीकरण (Westernisation)” नहीं समझे।
इस तरह स्पष्ट है कि “सांवैधानिक नैतिकता” संविधान की मूल भावनाओं के क्रियान्वयन में निहित है। निश्चितया सांवैधानिक नैतिकता भारत को समृद्ध, सशक्त, आधुनिक, वैज्ञानिक और अग्रणी बनाने के लिए नीति नियामकों को प्रेरित करती रहेगी। इससे इतर लक्ष्य या मनोदशा सांवैधानिक अनैतिकता” ही होगी। दरअसल Constitutional Morality (सांवैधानिक नैतिकता) का अर्थ Morality शब्द में अन्तर्निहित है, जिसके अवधारणात्मक अर्थ के लिए हिन्दी में कोई उपयुक्त शब्द शायद नहीं है।
कुछ लोग इसके लिए सदाचार, सत्यनिष्ठा, तो कुछ लोग नैतिकता शब्द का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन ये शब्द भी इसकी अन्तर्निहित उद्देश्य और भावना को शामिल नहीं कर पाते हैं। यहां Morality शब्द का अर्थ होता है कि जो भारतीय समाज के सम्यक और समुचित विकास एवं व्यवस्था के लिए अपेक्षित विषय के मूल और मौलिक तत्वों को धरातल पर उतारने में ईमानदार हो। इस Morality में उस संविधान के अन्तर्निहित उद्देश्य और भावना की अभिव्यक्ति उसके भावना, विचार, अभिव्यक्ति और व्यवहार में अवश्य रहे।
इस तरह Constitutional Morality का अर्थ हुआ कि संविधान के निर्माण के समय संविधान का निर्माण जिन भावनाओं और उद्देश्यों की पूर्ति के साधन के रूप में आत्मार्पित, अंगीकृत और अधिनियमित किया गया है, उन उद्देश्यों और भावनाओं को धरातल पर उतारने के प्रयास में ईमानदार रहना। हमें Morality में Integrity को भी निहित करना चाहिए और इसके बिना इन दोनों का कोई कार्यात्मक अर्थ नही होगा। तो स्पष्ट है कि बदलते संदर्भों और आवश्यकताओं के अनुरूप संविधान को बदलते रहना भी पड़ेगा, अर्थात किसी भी संविधान को निश्चित उद्देश्य और भावना में किसी मजबूत संरचनात्मक ढांचा में बांधते हुए भी समय के अनुकूल ढालने और आगे बढ़ते रहने की जीवंतता रहनी चाहिए। इसीलिए संविधान में समय के अनुकूल संशोधन किए जाते रहते हैं। यह बात तो सैद्धांतिक रूप में सही और सहमत होने योग्य है, लेकिन संविधान के अनुसार शासन संचालन करने वालों को Morality के बंधन में कैसे बांधा जाए? इसे स्पष्ट नहीं किया जा सकता।
इसी के साथ डॉ. भीमराव आंबेडकर ने “राजनीति में भक्ति” (Hero Worship) के ख़तरों के प्रति आगाह भी किया। उन्होंने धार्मिक भक्ति पर निष्पक्ष ध्यान कर इस पर कोई सकारात्मक या नकारात्मक टिप्पणी नहीं की, लेकिन “राजनीति में भक्ति” को भारतीय लोकतंत्र पर खतरा बताया। किसी भी भक्ति में पूर्ण आस्था और समर्पण निहित होता है और इसे मानसिक गुलाम भी मान लिया जाता है। ‘आस्था’ किसी भी संबंधित शंका को प्रथम दृष्टया ही खारिज कर देती है, अर्थात आप कोई प्रश्न नहीं कर सकते हैं।
जबकि विज्ञान सभी आशंकाओं और विपरीत संभावनाओं को सदैव आमंत्रित करता रहता है, ताकि उसका विकास पूर्ण जीवंतता के साथ होता रहे, और होता भी रहता है। स्पष्ट है कि ‘राजनीतिक भक्ति’ “लोकतंत्र” को “प्रजातंत्र” की ओर ले जाती है। यहां सावधान रहें कि लोकतंत्र और प्रजातंत्र, दोनों का अंग्रेजी अनुवाद ‘Democracy’ ही है। लेकिन ‘लोकतंत्र’ वहां के लोगों का तंत्र है और ‘प्रजातंत्र’ वहां की प्रजा का तंत्र हुआ। स्पष्ट है कि लोक यानि लोग एक निरपेक्ष शब्द है, जबकि प्रजा एक सापेक्ष शब्द है। स्पष्ट है कि कोई नागरिक या लोग उसी समय किसी की प्रजा हो सकता है, जब वहां कोई राजा (King) होगा। बिना राजा के कोई प्रजा नहीं हो सकता, और इसीलिए भारतीय संविधान के उद्देशिका में लोकतंत्र शब्द है, प्रजातंत्र नहीं है।
दरअसल भक्ति का उदय ही इतिहास के मध्य काल में हुआ था, जो सामंती काल था। सामंतवाद के काल में “भक्ति” समाज के हर क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण और विशिष्ट पहचान बनी, जो उस क्षेत्र के सभी सामंतों के प्रति जनता से अपेक्षित थी। इसी से यह धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक के साथ साथ राजनीतिक भक्ति ने भी जन्म लिया और मजबूत भी हो गया। डॉ. आम्बेडकर जैसे पारखी विद्वान यह देख रहे थे कि भक्ति का प्रभाव भारत में अभी भी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में मजबूत और प्रभावशाली है। इसीलिए इस राजनीतिक भक्ति के ख़तरों को अपनी मानसिक दृष्टि से देख रहे थे। चूंकि राजनीतिक सत्ता ही सभी क्षेत्रों का नियामक, निर्धारक, नियंत्रक, और निर्माता होती है, इसीलिए राजनीतिक भक्ति के ख़तरों को नव स्थापित लोकतंत्र के संदर्भ में भांप लिया था। इसे हमलोगों को भी समझना चाहिए।
इसके ही साथ में, इन्होंने राजनीतिक लोकतंत्र (Political Democracy) की सीमाओं को भी गहराई से रेखांकित किया है। इन्होंने सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ और आवश्यकता को भी समझाया। तय है कि सामाजिक लोकतंत्र में सांस्कृतिक लोकतंत्र भी समाहित है, क्योंकि इन दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। लेकिन भारत का दुर्भाग्य यह है कि सांस्कृतिक लोकतंत्र की चर्चा यानि विमर्श भारत के तथाकथित आम्बेडकरवादी बुद्धिजीवियों की बुद्धि में प्रमुख स्थान नहीं ले सका है।
आम्बेडकर ने अपने आलेखों में सामाजिक सांस्कृतिक क्रांति यानि कम समय में बहुत बड़े बदलाव को प्रमुखता से रेखांकित किया है और इसे राजनीतिक लोकतंत्र की पूर्व शर्त भी मानी है। भारत के सभी प्रमुख तथाकथित आम्बेडकरवादी भी इसे नहीं समझ रहे हैं, या अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में इससे विमुख रहते हैं। ऐसे सभी बुद्धजीवी सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र के नाम पर अपने स्वार्थ की सिद्धि कर रहे हैं और इसीलिए व्यक्ति बदलने की, यानि सत्ता बदलने की राजनीति तक ही अपने को सीमित किए हुए हैं। व्यवस्था परिवर्तन यानि सामाजिक सांस्कृतिक लोकतंत्र की स्थापना की दृष्टि (Vision) अधिकांश आम्बेडकरवादी नेताओं में नहीं है। मैं तो यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि इस सामाजिक सांस्कृतिक लोकतंत्र की दृष्टि अधिकांश में ही नहीं, किसी भी तात्कालिक आम्बेडकरवादी नेताओं में नहीं है।
-आचार्य निरंजन सिन्हा
स्वैच्छिक सेवानिवृत्त, संयुक्त आयुक्त राज्य कर विभाग पटना, बिहार