सच्ची बातें…
1948 में फैजाबाद लोस उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी राघवदास ने राम जन्मभूमि को मुक्त कराने का किया था वादा
-इसी मुद्दे पर राघव दास से हार गए थे विख्यात समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्रदेव जी
-अब प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन के बहिष्कार का निर्णय कांग्रेस पर पड़ रहा भारी
-चार कदम आगे, आठ कदम पीछे के दौर में कांग्रेस
-राजीव गाँधी भी रामजन्मभूमि को कराना चाहते थे मुक्त
-असमय हत्या के बाद सोनिया ने खींच लिए कदम पीछे
-ताला खुलवाने से ढांचा गिरवाने तक कांग्रेस हर जगह रही मौजूद
हरिमोहन विश्वकर्मा, लखनऊ। आज अयोध्या में राम मंदिर के राजनीतिकरण का आरोप लगाकर जिस कांग्रेस ने राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का बायकाट कर दिया है, यह जानकऱ आपको आश्चर्य होगा कि आजादी के तुरंत बाद उसी कांग्रेस ने भी रामजन्मभूमि मुद्दे का लाभ चुनाव जीतने के लिए किया था।
वर्ष 1948 में फ़ैजाबाद लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी बाबा राघवदास ने चुनाव जीतने के लिए यह घोषणा की थी कि अगर वे जीते तो राम जन्मभूमि को मुक्त कराएंगे। तब स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार कांग्रेस के इस प्रत्याशी ने राम मंदिर को राजनीतिक मुद्दा बनाकर चुनावी वैतरणी पार की थी। राघवदास के सामने समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव थे और वे कांग्रेस प्रत्याशी पर भारी पड़ रहे थे।
चुनाव प्रचार के दौरान बाबा राघवदास फैजाबाद की जनता को यह समझाने का प्रयास करते रहे कि कांग्रेस ही राम जन्मभूमि का मसला सुलझा सकती है। फैजाबाद की जनता ने कांग्रेस प्रत्याशी बाबा राघवदास को जिता दिया और रामजन्मभूमि का मुद्दा राजनीतिक बहस का केंद्र बन गया।
बाबा राघवदास ने अपने चुनावी वादे के अनुसार अयोध्या के साधु-संतों के साथ बैठकें भी की, किंतु दिसंबर, 1949 में बाबरी ढाँचे के भीतर कथित रूप से भगवान राम की मूर्ति प्रकट हुई। इसके बाद पूरा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल गया।
1986 में शाहबानो केस में पार्टी की छवि ख़राब होते देख कांग्रेस सरकार ने राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री रहते 1986 में राम जन्मभूमि का ताला खुलवा कर एक बार फिर कांग्रेस को राजनीतिक लाभ दिलाया। परन्तु राजीव गाँधी वास्तव में इस मुद्दे पर गंभीर थे और अगर वे जिंदा रहते तो शायद इस मुद्दे पर और आगे बढ़ने का इरादा रखते थे। हो सकता है तब भाजपा राम मंदिर मुद्दे पर इस लाभकारी स्थिति में न रहती।
राजीव गाँधी ने बहुसंख्यक आस्था के इस मुद्दे पर शाहबानो मामले में मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोपों को झेलने के बाद 1986 में जज केएम पांडेय के आदेश से गर्भगृह के खोले गए ताले को अपनी सरकार की उपलब्धि बताया भी था। राजीव गांधी रामजन्मभूमि को मुक्त करवाने की दिशा में कुछ और कर पाते, उससे पहले ही 1991 में आतंकी हमले में उनकी मृत्यु हो गई। इसके पश्चात् पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री रहते इस बात की जबरदस्त चर्चा हुई कि उनके और उप्र के भाजपाई मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के मध्य आंतरिक समझौता न होता तो बाबरी ढांचा शायद न गिरता।
इसी के बाद कांग्रेस के लिए रामजन्मभूमि का मुद्दा मुस्लिम वोट बैंक को एकजुट करने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का रास्ता बन गया। हालांकि वह भी उप्र में उससे छिन गया। क्योंकि मुलायम सिंह यादव 1992 में कांग्रेस के मुकाबले अल्पसंख्यकों का चेहरा बनने में सफल रहे। एक समय कांग्रेस में भी धर्मनिष्ठ नेताओं का बोलबाला था और वे हिंदू हितों की बात को पुरजोर तरीके से उठाते थे, किंतु 1992 के बाद कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति बढ़ती गई। अहमद पटेल, अंबिका सोनी, पी चिदंबरम जैसे नेताओं ने कांग्रेस नेतृत्व को हिंदुओं से दूर कर दिया।
दो दशक तक कांग्रेस दिग्भ्रमित स्थिति में रही। यहां तक कि राहुल गांधी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते भी कांग्रेस हिंदू-मुस्लिम के भ्रमजाल में फंसी रही। कांग्रेस की गिरती साख और सिमटता जनादेश भी इसकी पुष्टि करता है कि मुस्लिम तुष्टिकरण के चलते हिंदुओं ने पार्टी से दूरी बना ली है।
पहले से ही राम मंदिर की उपेक्षा का दंश झेल रही देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के समक्ष राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह के बहिष्कार के निर्णय से आपसी टूट का खतरा तो बढ़ा ही है, बहुसंख्यक हिंदू समाज के समक्ष भी अच्छा संकेत नहीं गया है। कांग्रेस नेतृत्व का अयोध्या न जाने का निर्णय स्वयं कांग्रेसियों के ही गले नहीं उतर रहा है।
सबसे अधिक विरोध के स्वर हिंदुत्व की प्रयोगशाला गुजरात से उठ रहे हैं। कांग्रेस नेता प्रमोद कृष्णम ने भी इसे पार्टी का आत्मघाती निर्णय बताया है। जाति-धर्म की जो राजनीति अब तक कांग्रेस को संजीवनी देती आई थी, वह अब भाजपा को मजबूत कर चुकी है और कांग्रेस अब भी इतिहास से सबक लेने के बजाय ऊहापोह के दौर से गुजर रही है। बार -बार ऐसे निर्णयों से कांग्रेस चार कदम आगे जाने के बाद आठ कदम पीछे जाने की स्थिति से दो चार हो रही है।