चंद्रचूड़ः ‘इंटेलेक्चुअल एक्सरसाइज’ से संत बनने की कोशिश में नाकामयाब
ज्ञानवापी से संभल: चंद्रचूड़ को कहां रखने की जरूरत है?
-निशांत आनंद
“अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट, जबलपुर बनाम शिवाकांत शुक्ल” मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि आपातकाल के दौरान, क्या व्यक्ति अनुच्छेद 226 के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर सकते हैं ताकि आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत हुई हिरासत को चुनौती दी जा सके, जबकि राष्ट्रपति के आदेश ने कुछ मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन को निलंबित कर दिया हो। इस मामले में भारत सरकार अपीलकर्ता थी और शिवकांत शुक्ला प्रतिवादी।
सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 359 के तहत राष्ट्रपति का आदेश आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन को रोकता है, जिसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार भी शामिल है।
इसके परिणामस्वरूप उच्च न्यायालय बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं की सुनवाई नहीं कर सकते। अपील को स्वीकार कर लिया गया, और न्यायालय ने आपातकाल के दौरान राष्ट्रपति आदेश की सर्वोच्चता पर जोर दिया। अपने फैसले में, कोर्ट ने “लिवरसिज बनाम एंडरसन” जैसे मामलों का भी उल्लेख किया।”
जी हां, पूर्व जस्टिस मार्कण्डेय काटजू इसी निर्णय की बात कर रहे थे जब वह पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ के पिता वाई वी चंद्रचूड़ के निर्णय पर बात करते हुए बता रहे थे कि चंद्रचूड़ ने कुछ नया न करते हुए इतिहास को दोहराने का काम किया है।
इस निर्णय में आपातकाल के समय मूलाधिकार के निलंबन को सर्वोच्च न्यायलय ने सही ठहराया था, जिसमे हेबियस कॉर्पस बंदी प्रत्यक्षीकरण) के अधिकार को महत्वपूर्ण माना गया है।
हमारे इस आर्टिकल का मुख्य मुद्दा वाई वी चंद्रचूड़ के निर्णय का अवलोकन नहीं अपितु पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ के निर्णय का अवलोकन करना है, जहां पर उन्होंने यह फैसला सुनाया कि पूजा स्थल अधिनियम, 1991 ढांचे के धार्मिक चरित्र का परीक्षण करने से नहीं रोकता है।
अर्थात कोर्ट पूजा स्थलों के ऐतिहासिकता की जांच कर सकता है, हालांकि इस बात को स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है कि कानून के अनुसार 15 अगस्त 1947 से पहले के पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र को बदलने का प्रावधान इस कानून के अंदर नहीं है।
हालांकि चंद्रचूड़ के निर्णय को समझने से पहले हमें कानून के प्रावधानों को बारीकी से समझने की जरूरत है और वहां ये यह भी समझने की जरूरत महसूस होगी की न्यायपालिका को किस प्रकार से अपने न्यायिक बुद्धि के इस्तेमाल करने की जरूरत है।
प्लेस ऑफ़ ऑफ़ वरशिप (स्पेशल प्रोविसिओं) एक्ट, 1991 के लागू होने की तिथि 11 जुलाई 1991 है परन्तु धारा 3, धारा 6 तथा धारा 8 को कार्यपालिका ने 15 अगस्त 1947 से लागू करने का प्रावधान कानून में स्पष्ट दिया है।
जिसमें कानून की धारा 3 इस बात पर जोर देती है कि कोई भी इमारत जो देश के आज़ाद होने के समय मौजूद थी उसमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन (conversion) नहीं किया जा सकता है।
धारा 2 ‘परिवर्तन’ को परिभाषित करते हुए लिखती है “किसी भी प्रकार का बारीक़ परिवर्तन जिससे उसके मूल चरित्र में परिवर्तन आता हो” कानून की धारा 6 सजा के प्रावधान की बात करती है जिसमें धारा 3 के उल्लंधन पर तीन साल की सजा का प्रावधान है वही उसकी सब-क्लाउस 3 क्रिमिनल कांस्पीरेसी की संभावनाओं पर सजा के प्रावधान को स्पष्ट करती है।
कानून के दोनों ही प्रावधानों को अगर जोड़ कर पढ़ा जाए तो यह मामला बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि विधेयक की मंशा कानून बनाते समय बिलकुल स्पष्ट थी कि वे किसी भी तरह की ऐसी घटना को गैर-क़ानूनी मान रहे थे, जिसमें किसी दूसरे संप्रदाय या धर्म द्वारा किसी दूसरे धर्म के स्थलों को किसी भी प्रकार से क्षति पहुंचाने या बदलने की कोशिश की जाए।
ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में सर्वोच्च न्यायलय से पहले के मामले को भी समझना जरुरी है, क्योंकि 1 फरवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद समिति के SLP को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि इस मामले पर त्वरित सुनवाई नहीं की जा सकती है वहीं वहां पर पूजा करने के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने बरक़रार रखा था।
यह मामला जब इलाहाबाद हाई कोर्ट में गया तब हाई कोर्ट ने पिटीशनर के इस बात को सिरे से ख़ारिज कर दिया कि इसे प्लेस ऑफ़ ऑफ़ वरशिप (स्पेशल प्रोविसिओं) एक्ट, 1991 के तहत देखे जाने की जरूरत है।
2022 के इस निर्णय में इलाहबाद हाई कोर्ट के जजमेंट के पारा 3 में रेस्पोंडेंट के वकील ने अपनी दलील में यह बताया कि यह मामला महज एक संपत्ति के विवाद का मामला नहीं है बल्कि यह एक राष्ट्रीय हित का मुद्दा है और उसे करोड़ों हिन्दुओं के हित के आधार पर देखा जाना चाहिए।
रेस्पोंडेंट ने अपने मुख्य बात पर ध्यान आकृष्ट करते हुए इस बात को कोर्ट के समक्ष रखा कि ज्ञानवापी मस्जिद की पूरी जमीं के प्रकृति का बिना मूल्यांकन किये हुए हम यह निर्धारित नहीं कर सकते कि यह किसका पूजा स्थल है।
हाई कोर्ट ने इस दलील को तरजीह दी और कानून को ताख पर रख दिया जहां सीधे तौर पर किसी भी प्रकार के सर्वे की आवश्यकता को ख़ारिज किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने जब 2022 में डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में अपना फैसला सुनाया तो बहुत ही शातिर तरीके से डी वाई चंद्रचूड़ ने यह निर्णय सुनाया कि कानून कहीं भी चरित्र के परीक्षण या जांच को ख़ारिज नहीं करता है। इस प्रकार, उन्होंने मुकदमे में एक नया तर्क प्रस्तुत किया-कि 15 अगस्त 1947 को ज्ञानवापी का “धार्मिक स्वरूप” अनिर्धारित था।
अर्थात यह मामला तभी से विवादित था। पर ऐसा चंद्रचूड़ ने व्याख्या किया और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे। परन्तु बड़ा सवाल यही है कि अगर आप किसी भी प्रकार से उस संरचना में परिवर्तन ला ही नहीं सकते हैं फिर यह सर्वे का औचित्य ही क्या रह जाता है? क्या कानून को एक इतिहासविद के काम को करना चाहिए? यह मानना थोड़ा असहज हो सकता है।
सुप्रीम कोर्ट बार कौंसिल के पूर्व अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने अपने वायर के साक्षात्कार में एक अहम् बिंदु को रेखांकित किया जिसमें वह पुनः प्लेस ऑफ़ ऑफ़ वरशिप (स्पेशल प्रोविसिओं) एक्ट, 1991 की धारा 4(2) की भाषा पर गौर फरमाने की बात करते हैं, जिसमें स्पष्ट रूप से यह लिखा गया है कि किसी भी प्रकार के नए मामले को इस कानून के अंतर्गत न्यायलय में नहीं लाया जा सकता है जिसका निर्माण 15 अगस्त 1947 से पहले का है।
अपनी बात को आगे रखते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता दवे इस बात कि ओर इशारा करते हैं कि जब राम जन्मभूमि विवाद पर जस्टिस शर्मा के इलाहाबाद हाई कोर्ट, यह यह फैसला सुनाया था कि यह कानून किसी नए मामले को बाहर रखने की बात नहीं करता है तब संविधान बेंच ने इस बात को सिरे से ख़ारिज करते हुए यह बात रखी थी कि कानून स्पष्ट रूप से किसी भी नए मामले को सुनने को रोकता है।
वहीं इससे पूर्व के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून की व्याख्या करते हुए यह बताया है कि कानून देश के धर्मनिरपेक्षता की रीढ़ है जो हमारे संविधान का एक बहुत बड़ा दर्शन है जिसे केशवानंद भारती के निर्णय में पूरी तरीके से स्वीकारा है।
अगर इस निर्णय को सही माना जाये तो चंद्रचूड़ की यह जिद कि इमारतों के वास्तविक चरित्र के परीक्षण की बात कहीं न कहीं एक ऐसे सिलसिले को शुरू कर दिया है जो कई प्रकार के विवाद को जन्म दे सकता है और संभल मस्जिद विवाद में स्पष्ट रूप से यह देखा जा सकता है।
दवे ने अपने एक दावे में यह बात कही कि चंद्रचूड़ न केवल गलत थे बल्कि बौद्धिक बेईमानी के भी गुनहगार हैं। जहां वह एक तरफ राममंदिर मामले में बाबरी मस्जिद के गिराए जाने को देश के लिए काला अध्याय मान रहे हैं, वहीं वह देश को एक ऐसे स्थिति में ला खड़ा कर रहे हैं जो अपने में कई विवादों को जन्म देगा।
हां यह कहना कुछ ज्यादा हो सकता है कि क्या न्यायालय संभल में मारे गए चार लोगों की जिम्मेदारी लेगी?, पर बड़ा सवाल यह है कि जिस पैंडोरा बॉक्स को चंद्रचूड़ ने खोला है क्या यह उसका एक नमूना नहीं है जिसके आधार पर ऐसे कई सारे धार्मिक स्थल खोदे जाएंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने राम जन्म भूमि पर ही निर्णय देते हुए यह कहा था कि आप अपने ऐतिहासिक गलतियों को ऐसे ठीक नहीं कर सकते हैं और उन लोगों को सजा देना जिनका उसमें कोई योगदान ही नहीं है, यह रूल ऑफ़ लॉ का भी उल्लंघन है।
इस पूरे मामले में चंद्रचूड़ खुद के ‘इंटेलेक्चुअल एक्सरसाइज’ से संत बनाने की कोशिश में बुरी तरह नाकामयाब रहे हैं जिसे देश के लोकतान्त्रिक संरचना के लिए केवल घातक ही माना जा सकता है।
(निशांत आनंद कानून के विद्यार्थी हैं)