November 11, 2024 |

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cast census : संवैधानिक मुद्दा है जातिगत जनगणना, जानिए कैसे…

Sachchi Baten

आंकड़े नहीं तो कैसे बनाएंगे जनकल्याणकारी योजनाएं

 

चौ. लौटन राम निषाद

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किसी भी जनकल्याणकारी योजना के संचालन एवं नीति बनाने के लिये जातिगत व वर्गगत आँकड़ा आवश्यक होता है। जब तक जातिगत जनगणना नहीं होगी, य़ह पता करना कठिन है कि किसी क्षेत्र, विभाग, संस्थान आदि में किस वर्ग या समुदाय का प्रतिनिधित्व कितना है और कौन सा वर्ग या जाति प्रतिनिधित्व से वंचित है। संविधान के अनुच्छेद -16(4),16(4-1) में इसका उल्लेख है।

संविधान की 7 वीं अनुसूची के अनुच्छेद 246 के अनुसार  व्यवस्था है कि केन्द्र सरकार हर दशक में जातिगत आँकड़े इकट्ठा करने के लिए जातिगत जनगणना कराए। जब ओबीसी आरक्षण से सम्बन्धित कोई मामला उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में जाता है तो य़ह टिप्पणी न्यायाधीश गण द्वारा की जाती है कि ओबीसी का कोई वैज्ञानिक आँकड़ा उपलब्ध नहीं है, सो निर्णय किया जाना असम्भव है।

मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र आदि में उच्च न्यायालय ने ऐसी ही टिप्पणी करते हुए ओबीसी आरक्षण के मामलों पर रोक लगा दिया। जिस तरह बिल्ली से दूध व जंगली कुत्तों से मेमना की रखवाली कराना असम्भव है, उसी तरह ओबीसी आरक्षण पर उचित निर्णय संघ नियन्त्रित भाजपा एवं जातिवादी न्यायपालिका से असम्भव है। वर्तमान में भाजपा सरकार गुरु गोलवलकर की बंच ऑफ थाट्स और वी ऑर अवर नेशनहुड डिफॉइंड की नीतियों पर आगे बढ़ते हुए ओबीसी, एससी, एसटी को संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर रही है। जनगणना व जातिगत आधार पर आरक्षण का विरोध सिर्फ ब्राह्मण व इनके संगठन तथा आरएएस के द्वारा ही किया जाता है। जब आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत सुदामा कोटा लागू हुआ तो कोई विरोध नहीं हुआ।

जातिगत जनगणना या सर्वेक्षण के, वे लोग या संगठन ही विरोधी हैं, जो पहले से ही हर तरह के जातिगत आरक्षण के विरोधी रहे हैं तथा इसमें शत-प्रतिशत भाजपा और संघ परिवार के समर्थक हैं।संविधान की 7 वीं अनुसूची के अनुच्छेद-246 के तहत हर दशक में संघ सरकार द्वारा जातिगत जनगणना कराया जाना चाहिए।ब्रिटिश शासन ने पहली बार 1872 में जातीय जनगणना कराया था,लेकिन सेंसस-1931 के बाद ओबीसी की जनगणना बंद कर दी गयी। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ। सेंसस-1951 में एससी, एसटी की जनगणना तो करायी गयी और हर दशक में इनके आँकड़े घोषित होते रहे, लेकिन ओबीसी आंकड़ा इकट्ठा करने का काम केन्द्र सरकार द्वारा नहीं कराया गया।

सेंसस-2011 में यूपीए-2 की सरकार ने सामाजिक-आर्थिक-जातिगत जनगणना (एस ई सी सी) कराया।लेकिन 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद एनडीए की सरकार ने जब 30 अगस्त 2016 को जातिगत आँकड़ों की घोषणा किया तब एससी, एसटी, धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग (मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी,रेसरल),ट्रांस जेंडर, दिव्यांग आदि के साथ भाषाई आधार पर जनसंख्या के आँकड़े घोषित कर दिए,पर ओबीसी का आँकड़ा एक बार फिर घोषित नहीं किया गया।ओबीसी संगठनों ने इस माँग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया। लोकसभा चुनाव-2019 में भाजपा ने ओबीसी की नाराजगी को दूर करने के लिए सेंसस-2021 में ओबीसी जनगणना कराने का वादा किया।

तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने जनगणना विभाग (रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया व सेंसस कमीशनर) के अधिकारियों की 5 जून 2018 को बैठक कर घोषणा किए कि 2021 के सेंसस में ओबीसी की जनगणना विशेष प्राथमिकता के साथ कराकर 2024 तक आँकड़ों को सार्वजनिक कर दिया जाएगा।पर, भाजपा सरकार अपनी ओबीसी विरोधी नीति का पूर्व की भाँति परिचय देते हुए गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय के द्वारा उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दाखिल कराकर ओबीसी की जनगणना कराने से मना कर दिया।

नब्बे के दशक के राजनीतिक घटना क्रम पर नज़र दौड़ाई जाय तो सवर्ण नजरिये की स्थितियां साफ़ हो जाती हैं। जब वीपी सिंह बोफोर्स तोप सौदे के मुद्दे पर काँग्रेस छोड़ राष्ट्रीय मोर्चा बनाये तो सवर्ण जातियों ने हाथो हाथ लेते हुए नारा दिया था-“राजा नहीं फकीर है, देश की तक़दीर है।” लेकिन जब 7 अगस्त, 1990 को मण्डल कमीशन की सिफारिश के अनुसार 52 प्रतिशत ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत कोटा का निर्णय लिए तो विरोध में आवाजें उठने लगी।

जब वीपी सिंह की सरकार ने 13 अगस्त 1990 को ओबीसी आरक्षण की अधिसूचना जारी कर दिए तो सवर्ण जातियों व सवर्ण छात्रों ने विरोध में नारेबाजी, तोड़फोड़ व आगजनी करने लगे। रातों रात नारा बदल गया-“राजा नहीं रंक है, देश का कलंक है, मान सिंह की औलाद है।” बाहर से जनता दल सरकार को समर्थन दे रही भाजपा ने अप्रत्यक्ष रूप से विरोध में अडवानी के नेतृत्व में राम रथ यात्रा शुरू कर दिया।

भाजपा आज फर्श से अर्श तक पहुँची है उसमें पिछड़ी व वंचित जातियों की ही अहम भूमिका है।पर, भाजपा सरकार संवैधानिक मूल्यों व अधिकारों के हनन करने से बाज नहीं आ रही है। क्योंकि उसका चरित्र ही सामाजिक न्याय व संविधान के विरोध का है। असल में भाजपा शिकारी किस्म का बाज है जो ओबीसी को चिड़िया सरीखा शिकार समझती है। पीएम पद का उम्मीदवार घोषित होने पर नरेंद्र मोदी अपने को पिछड़ी जाति का बताते हुए नहीं अघाते थे,वे आरएएस के इशारे पर नील वर्ण शृंगाल का चरित्र अपना कर ओबीसी का अहित कर रहे हैँ।

बहुत दिनों से जाति पर आधारित जनगणना का मुद्दा सारे देश में बहस और विमर्श का केन्द्र रहा है, इसके पक्ष-विपक्ष में तर्क होते रहे हैं। पिछले दिनों राहुल गांधी ने जाति-जनगणना का समर्थन करके इस मुद्दे को एक बार फिर से सभी राजनीतिक दलों के सामने ला कर खड़ा कर दिया है। कर्नाटक में एक चुनावी सभा में उन्होंने एक भाषण में एक नारा दिया,”जितनी आब़ादी उतना हक़” यानी “जिसकीजितनीसंख्याभारी, उसकीउतनीहिस्सेदारी।” इसका अर्थ यह है कि देश में विभिन्न समूहों की जनसंख्या के आधार पर विभिन्न समूहों को शिक्षा एवं नौकरियों में उनका हक़ मिलना चाहिए,यानी यदि 70-85% भारतीय ओबीसी,एससी और एसटी जातियों के हैं, तो विभिन्न व्यवसायों में उनका प्रतिनिधित्व मोटे तौर पर 70-85% होना चाहिए।

‌उदाहरण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 11310 बड़े अधिकारियों में से 8000 ओबीसी,एससी और एसटी जातियों से होने चाहिए, लेकिन हक़ीक़त यह है, कि इनकी संख्या केवल 3000 है। ‘स्टार्टअप यूनिकार्न’ में से 70 फ़ीसदी की स्थापना एससी-एसटी जातियों के द्वारा की जानी‌ चाहिए, लेकिन इनमें ऐसा कहीं नहीं है। या इन जातियों में से भारत सरकार में 225‌ संयुक्त सचिव और सचिव होने चाहिए, लेकिन अभी ‌इसमें केवल 68 हैं। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की 50 कम्पनियों में से 30 इन उत्पीड़ित जातियों में से होने चाहिए,लेकिन इनमें से कोई नहीं है। दूसरी ओर मनरेगा योजना में 154 मिलियन मज़दूरों में से 80% ओबीसी एससी और एसटी हैं अथवा मैला ढोने वाले सभी ‌60 हज़ार भारतीय दलित या आदिवासी हैं।

44 हज़ार सरकारी सफ़ाई कर्मचारियों में से 75% इन्हीं समुदायों में से हैं। इस तरह की जाति के प्रतिनिधित्व की भारी असमानता महज़ संयोग नहीं है, इसके समर्थन में अक़सर यह तर्क दिया जाता है, कि किसी भी क्षेत्र में व्यावसायिक सफलता के लिए शिक्षा और योग्यता की ज़रूरत होती है, जिसमें जाति की कोई भूमिका नहीं है। यह तर्क हास्यास्पद है कि सभी ‘योग्यता’ जाति के आधार पर केवल 15-20% आब़ादी के लिए हैं, यदि शिक्षा सफलता के लिए एक सीढ़ी है, तो यह 70-85% उत्पीड़ित एवं वंचित वर्ग की जातियों को उपलब्ध नहीं है।

नेताओं और नीति निर्माताओं को तैयार करने वाले दिल्ली के प्रतिष्ठित निजी संस्थान अशोका यूनिवर्सिटी को‌ फण्ड देने वाले सभी 175 दानकर्ता ऊँची जाति से हैं।‌ आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित सार्वजनिक संस्थानों में उत्पीड़ित जातियों से केवल 6%ही आते हैं, जबकि इसकी तुलना में उच्च जातियों से 35%। सोचने वाली बात यह है, कि इस तरह की भयानक जातीय असमानता हमारे समाज में अगर है, तो यह क्यों नहीं कोई नीतिगत मुद्दा बनती? शायद इसका कारण यह भी हो सकता है कि इस तरह के विमर्श में इन‌ उत्पीड़ित जातियों की भागीदारी बहुत कम है।

उदाहरण के तौर पर 600 लेखकों में से 96% लेखक सवर्ण हैं ; जिन्होंने पिछले चार महीनों में अंग्रेजी भाषा के अख़बारों या वेवसाइट पर लेख लिखे। इसमें ‌द इंडियन एक्सप्रेस, द हिन्दू, हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया, द‌ प्रिंट और एनडीटीवी में लेखक ऊँची जातियों के हैं, चूँकि हमारे समाज में पढ़े-लिखे लोगों में भी जनवादी चेतना का अत्यधिक अभाव है। कुछ गिने-चुने अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए, तो ये उच्च जाति के लेखक अपनी जाति एवं वर्ग के अनुसार ही लेखन करते हैं। उनसे आशा नहीं की जा सकती,कि वे उत्पीड़ित जातियों के पक्ष में खड़े होकर लेखन करेंगे।

हमारे देश में अक़्सर इन अन्तर्विरोधों को धूमिल करने के लिए अमीर-ग़रीब की बात की जाती है, लेकिन सच्चाई यह है, कि हमारे यहाँ पेशों के चुनाव में जाति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। अमीर दलित परिवार में पैदा हुए बच्चे की सफलता की संभावना कम गरीब उच्च जाति के परिवार में पैदा हुए बच्चे की तुलना में कम होती है। हमारे देश में जाति कई जगह वर्ग की सीमा को भी नकारती है।

धनी परिवार में जन्म लेने वाले एक दलित बच्चे पर अनेक तरह के सामाजिक और जातीय दबाव होते हैं, जिससे उनके ऊपर बहुत नकारात्मक मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ता है, जो कि उनके पेशे के चुनाव में बाधक होता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि भारत में जातीय पूर्वाग्रह कितने गहरे हैं? क्या इसे बदलने का सक्रिय प्रयास नहीं होना चाहिए तथा इसका समाधान क्या है? सम्भव है, इसका पूर्ण समाधान अभी न हो, परन्तु हमें उस दिशा में अपने क़दम अवश्य बढ़ाने चाहिए।

इस सामाजिक न्याय मिशन को शुरू करने का क़दम यह है कि समस्या की सीमा को समझना। इसके लिए जनगणना के जातिगत आँकड़ों की ज़रूरत है। ये आँकड़े न केवल हमें जाति के अनुसार जनसंख्या में विभिन्न जातियों की आय, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक गतिशीलता के बारे में जानकारी देंगे, बल्कि किसी भी नये सामाजिक परिवर्तन के लिए एक नींव का काम करेंगे।

दुनिया के बहुत से देश जैसे- स्वीडन, अमेरिका और नीदरलैंड ने ‌सामाजिक असमानता और वंचना को दूर करने के लिए उत्पीड़ित जातीय वर्गों की तलाश की है, जिनमें अश्वेत, अप्रवासी और हाशिए पर पड़ी जनजातियाँ‌ भी हैं, जिनके लिए अलग से सामाजिक और आर्थिक उपाय किए गए हैं, जिनमें शिक्षा, नौकरियों और उद्यमों में उन्हें वरीयता प्रदान की गई है। भारतीय समाज तो‌ उन समाजों से ज्यादा जटिल और विविधतापूर्ण है, इसलिए इस पर एक खुली जीवन्त सार्वजनिक बहस की ज़रूरत है। इसमें पहला क़दम जातिगत जनगणना के आधार पर समस्या का विस्तृत डेटा और जानकारी प्राप्त करना तथा जातिगत जनगणना को सार्वजनिक करना आवश्यक है।

वास्तव में वर्तमान केन्द्र सरकार उच्च जाति के लोगों की प्रतिक्रिया के भय से जातिगत जनगणना को सार्वजनिक करने से डरती है, लेकिन जानकारी छिपाने से समस्या ख़त्म नहीं हो जाती। बिहार सरकार द्वारा जाति आधारित जनगणना पर 4 मई को पटना हाईकोर्ट में 6 जनहित याचिकाओं की सुनवाई करते हुए 3 जुलाई तक अंतरिम रोक लगा दी गई। याचिकाकर्ताओं ने सर्वेक्षण को गैर संवैधानिक और राज्य‌ सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर तथा इसे व्यक्ति की निजता का हनन और फ़िज़ूलख़र्ची बतलाया था।

य़ह कैसी विडंबना है कि जातिगत जनगणना से निजता का हनन होगा और आधार कार्ड बनाने में हाथों की अंगुलियों, आंख कि पुतली का नमूना लेने में निजता भंग नहीं होती। सरकारें कछुआ, मगरमच्छ, घड़ियाल, डॉल्फिन, शेर, भालू, बन्दर, चीता, गाय आदि जानवरों की गिनती कराती हैं, पर ओबीसी की गणना से पहाड़ टूट व आकाश गिर जायेगा। जनकल्याणकारी योजनाओं को बनाने व नीतियां बनाने में जातिगत आँकड़े आवश्यक है। बिना जनगणना के कैसा पता चलेगा कि किसी जाति व वर्ग का कितना प्रतिनिधित्व हो पाया है और कौन वंचित है।जनगणना का विरोध सिर्फ ब्राह्मण,ब्राह्मण संगठन व आरएएस से सम्बन्धित संगठन ही कर रहे हैँ। जातिगत जनगणना संवैधानिक मुद्दा है।

जातिगत सर्वेक्षण के खिलाफ दो संगठनों और कुछ व्यक्तियों ने याचिकाएँ डाली थीं। जिन दो संगठनों के नाम याचिकाकर्ताओं में शामिल हैं, उनमें एक ‘यूथ फॉर इक्वेलिटी’ और दूसरा ‘एक सोच एक प्रयास’ शामिल हैं। यूथ फॉर इक्वेलिटी एक आरक्षण विरोधी संगठन है, जो साल 2006 में उच्च शिक्षा में  ओबीसी के 27 प्रतिशत कोटा के विरोध में अस्तित्व में आया था। इसे आईआईटी, आईआईएम, जेएनयू और कुछ अन्य प्रतिष्ठित संस्थाओं के छात्रों ने बनाया था। संस्थापकों में एक अरविंद केजरीवाल भी हैं, जो फिलहाल आम आदमी पार्टी (आप) के मुखिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। यह संगठन कठोर रूप से आरक्षण के ख़िलाफ़ है और इसका मोटो है- जाति आधारित आरक्षण को ना कहिए। पूर्व में यह संगठन आरक्षण के ख़िलाफ़ कई आंदोलन कर चुका है।

साल 2019 में कौशल कुमार मिश्रा इस संगठन के अध्यक्ष हुआ करते थे, जो फिलहाल भाजपा के मीडिया पैनलिस्ट हैं। दूसरा संगठन ‘एक सोच, एक प्रयास’ मुख्य तौर पर दिल्ली का एक एनजीओ है, जो मुख्य रूप से कानूनी मदद मुहैया कराता है। इस संगठन के सचिव अरविंद कुमार हैं, जो खुद भी वकील हैं। उनका मानना है कि जाति आधारित सर्वेक्षण होने के बाद जातियों की संख्या के आँकड़े सार्वजनिक होंगे, जातीय हिंसा बढ़ेगी।

वे कहते हैं, “जिन लोगों को पहले आरक्षण का लाभ मिल चुका है, उन्हें दोबारा आरक्षण नहीं मिलना चाहिए और उनकी जगह दूसरे ज़रूरतमंदों को इसका लाभ दिया जाना चाहिए।” इन दो संगठनों के अलावा आधा दर्जन से ज्यादा अन्य लोग हैं, जिन्होंने याचिकाएँ डाली थीं, इनमें प्रोफेसर, पूर्व नौकरशाह तक शामिल हैं, लेकिन सभी दिल्ली-उत्तर प्रदेश में रह रहे हैं। ‘ मीडिया’ की पड़ताल बताती है, कि ये दक्षिणपंथी रुझान वाले हैं।आरएएस व उसके अन्य आनुषंगिक संगठनों से जुड़े हुए हैं। जिस भाजपा ने मण्डल विरोध में कमंडल यात्रा शुरू किया, उससे सामाजिक न्याय की कल्पना करना बेवकूफी है। मण्डल विरोधी भाजपा कभी ओबीसी की हितैषी नहीं हो सकती।

इन्हीं में एक हैं प्रोफेसर मक्खन लाल। वे आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) समर्थक इतिहासकार हैं और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके हैं। वे दिल्ली इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट के संस्थापक-

डायरेक्टर थे। फिलहाल वे विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन में फेलो (ऑनररी) हैं। वे अपने दक्षिणपंथी रुझान के लिए जाने जाते हैं और अक़्सर मोदी सरकार के समर्थन में खड़े नजर आते हैं। पिछले दिनों जब इतिहास की किताबों से गांधी, गोडसे से जुड़े अहम प्रसंगों को हटाने की खबरें आई थीं, तो उन्होंने सरकार का समर्थन करते हुए कहा था कि पहले गलत इतिहास पढ़ाया जाता था और अब सही कदम उठाये जा रहे हैं, लेकिन यह बहुत देर से हो रहा है।

याचिकाकर्ताओं में दूसरा नाम प्रोफेसर कपिल कुमार का है, जो “सेंटर फॉर फ्रीडम स्ट्रगल एंड डायस्पोरा स्टडी” में डायरेक्टर हैं। वे पूर्व के मानव संसाधन विकास मंत्रालय, संस्कृति मंत्रालय, पर्यटन मंत्रालयों की कई कमेटियों का हिस्सा रहे हैं। प्रो. कपिल कुमार के ट्विटर एकाउंट उनके भीतर भरी नफरत को उजागर करते हैं। एक ट्वीट में वे लिखते हैं, “पहलवानों के मुद्दे, शाहीन बाग और कथित किसान आंदोलन जैसी स्थिति क्यों बनने दी जा रही है? अराजकों, गद्दारों, आतंकवादी समर्थकों को वहाँ क्यों जाने दिया जा रहा है? मोदीजी, इसे देखें।” एक अन्य ट्वीट में वे कहते हैं कि “पूर्वोत्तर में विकास क्यों होना चाहिए?” फिर वह लिखते हैं, “हमें अराजक-सेक्युलर चीन और भारत में उनकी सहयोगी पार्टियों -सीआईए, आईएसआई और आतंकवादियों को जला देना चाहिए।” उन्होंने आगे कहा,

“अंबेडकर ने खुद कहा था, कि जाति व्यवस्था खत्म होनी चाहिए, मगर इस तरह की जनगणना से वह और बढ़ेगी, इसलिए हमने इसके खिलाफ याचिका डाली है।”

प्रोफेसर संगीत कुमार रागी तीसरे याचिकाकर्ता हैं। वे दिल्ली यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर हैं। मुख्यधारा के टीवी चैनलों की डिबेट में उनकी नियमित मौज़ूदगी होती है। टीवी चैनल उन्हें अक़्सर लेखक व विचारक के तौर पर पेश करते हैं, लेकिन अपने वक्तव्य में अक़्सर भाजपा के पक्ष में बोलते हैं।चौथे याचिकाकर्ता डॉ. भूरेलाल दो प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में संयुक्त सचिव रह चुके हैं।

वे प्रवर्तन निदेशालय के डायरेक्टर और कई मंत्रालयों में सचिव के पद पर भी रह चुके हैं। इसके अलावा सेंट्रल विजिलेंस कमीशन में भी थे। इसके अतिरिक्त ट्रांसजेंडर समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रही रेशमा प्रसाद ने भी जाति-आधारित सर्वे के ख़िलाफ़ याचिका डाली है। उनका कहना है,”जाति सर्वे हो या न हो, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं, लेकिन उनकी आपत्ति सर्वेक्षण में उन्हें ओबीसी मानने से है।” इन सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जातिगत जनगणना या सर्वेक्षण के, वे लोग या संगठन ही विरोधी हैं, जो पहले से ही हर तरह के जातिगत आरक्षण के विरोधी रहे हैं तथा इसमें शत-प्रतिशत भाजपा और संघ परिवार के समर्थक हैं।

कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी द्वारा जातिगत जनगणना का समर्थन निश्चित रूप से इस मुद्दे पर एक नयी बहस को जन्म देगा। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 70 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ते हुए काँग्रेस ने 224 सदस्यीय विधानसभा में 138 सीटों पर जो अप्रत्याशित जीत हासिल किया है, उसमें ओबीसी की जनगणना एवं 50 प्रतिशत आरक्षण सीमा का प्रतिबंध खत्म करने पर राहुल गांधी की खुली वकालत की महत्वपूर्ण भूमिका है।

(लेखक सामाजिक न्याय चिंतक व भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)


Sachchi Baten

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