ओबीसी दिवस पर विशेष
जातिगत गणना का जो काम 75 साल में नहीं हुआ, उसे कर दीजिए मोदी जी
काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग ने भी की थी जाति आधारित जनगणना की सिफारिश
राजेश पटेल, चुनार/मिर्जापुर (सच्ची बातें)। जातिगत गणना की मांग कोई आज की नहीं है। 1953 में गठित काका कालेलकर आयोग ने भी इसकी सिफारिश की थी। 1955 में राष्ट्रपति को सौंपी अपनी रिपोर्ट में आयोग ने सिफारिश की थी कि 1961 की जनगणना जातिगत आधार पर की जाए। 1996-98 तक की संयुक्त मोर्चे की सरकार में प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने इस पर अपनी सहमति दे दी थी, लेकिन अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार बनते ही उन्होंने इस फैसले को पलट दिया था। इसके बाद यूपीए-2 की सरकार में भी 2011 की जनगणना में ओबीसी की गिनती कराने का निर्णय लिया था। 2011 में जातियों के आंकड़ें जुटाए भी गए, लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया। माना जा रहा है कि इसके पीछे दक्षिणपंथी सोच के कुछ नेताओं का दबाव था।
1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के बनने से पहले एचडी देवेगौड़ा सरकार ने जातिवार जनगणना कराने को मंजूरी दे दी थी, जिसके चलते 2001 में जातिगत जनगणना होनी थी। मंडल कमीशन के प्रावधानों को लागू करने के बाद देश में पहली बार जनगणना 2001 में होनी थी, ऐसे में मंडल कमीशन के प्रावधानों को ठीक ढंग से लागू किया जा रहा है या नहीं, इसे देखने के लिए जातिगत जनगणना कराए जाने की मांग ज़ोर पकड़ रही थी।
न्यायिक प्रणाली की ओर से बार-बार तथ्यात्मक आंकड़ों को जुटाने की बात कही जा रही थी, ताकि कोई ठोस कार्य प्रणाली बनाई जा सके। तत्कालीन रजिस्ट्रार जनरल ने भी जातिगत जनगणना की मंजूरी दे दी थी, लेकिन वाजपेयी सरकार ने इस फ़ैसले को पलट दिया। जिसके चलते 2001 में जातिवार जनगणना नहीं हो पाई।
इसको लेकर समाज का बहुजन तबका और उसके नेता वाजपेयी की आलोचना करते रहे हैं, उनके मुताबिक वाजपेयी के फ़ैसले से आबादी के हिसाब से हक की मुहिम को धक्का पहुंचा।
आपको बता दें कि ओबीसी की यह मांग नई नहीं है। 1953 में नेहरू सरकार द्वारा पिछड़ों की आर्थिक, सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए काका कालेलकर आयोग का गठन किया था।
काका कालेलकर (फाइल फोटो)
इस आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को सौंपी थी। इस रिपोर्ट में अन्य सिफारिशों के साथ ही 1961 की जनगणना जाति आधारित कराने की जरूरत भी जताई गई थी। लेकिन रिपोर्ट ही ठंडे बस्ते में चली गई। दलित विमर्श के लेखक चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने इसके लिए सीधे तौर पर उस समय के गृह मंत्री पं. गोविंद बल्लभ पंत को जिम्मेवार ठहराया है। जिज्ञासु ‘यू. पी. बैकवर्ड क्लासेज लीग’ के आयोजक भी थे। उन्होंने ‘पिछड़ा वर्ग कमीशन की रिपोर्ट और पिछड़े वर्ग के वैधानिक अधिकारों का सरकार द्वारा हनन तथा बाबासाहेब आंबेडकर का कर्तव्यादेश’ किताब लिखी है। इन किताबों में पिछड़े वर्ग के अधिकारों को किस तरह से कुचला जा रहा है, का विस्तार से तर्क सम्मत विवरण है।
मंडल कमीशन के अध्यक्ष बीपी मंडल भी थे जाति आधारित जनगणना के हिमायती
मंडल आयोग के अध्यक्ष जस्टिस बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल भी जाति आधारित जनगणना के हिमायती थे। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में इसका जिक्र किया है। उन्होंने जो रिपोर्ट सौंपी है, उसमें सबसे राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को संबोधित एक पत्र है। इस पत्र में रिपोर्ट तैयार करते समय के स्याह और उजाले दोनों पक्ष का जिक्र किया है। इसमें बिंदु 10 में बीपी मंडल ने लिखा है कि 1931 की जनगणना में जाति गणना के आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण हमें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। भविष्य में ऐसी कठिनाइयों का सामना न करना पड़े, इसलिए मैंने 15 जून 1979 और 18 अगस्त 1979 को क्रमशः सर्वश्री एचएम पटेल और वाईवी चव्हाण को पत्र लिखा। मैंने गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह जी को भी इस बारे में 31 मार्च 1980 को एक पत्र लिखा था। मुझे सूचित किया गया है कि यह निर्णय लिया गया है कि 1981 की जनगणना के दौरान जाति की गणना नहीं की जाएगी और भारतीय जनगणना में भी जाति की गणना न करने की वर्मान नीति को जारी रखा जाएगा। जिस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। नीचे फोटो देखें…
इसके बाद से विभिन्न मंचों द्वारा जाति आधारित जनगणना कराने की मांग लगातार उठायी जा रही है। 1996-1998 में संयुक्त मोर्चे की सरकार इस पर तैयार भी हुई तो इसके बाद 1999 में बनी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने पूर्ववर्ती सरकार के इस फैसले को पलट दिया। 2009 में बनी यूपीए-2 सरकार में फिर सहमति बनी कि 2011 की जनगणना जाति आधारित कराई जाएगी। 2011 में सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना करवाई भी गई, लेकिन इस प्रक्रिया में हासिल किए गए जाति से जुड़े आंकड़े कभी सार्वजानिक नहीं किए गए।
2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी। इसके बाद उनकी सरकार में सहयोगी दल जातिगत जनगणना की मांग करते रहे हैं, लेकिन इन दलों के मुखिया मोदी सरकार को इसके लिए तैयार नहीं सके। इसे दूसरे शब्दों में भी कहा जा सकता है- जातीय राजनीति करने वाले इन नेताओं को अपनी जाति के उत्थान से कुछ भी नहीं लेना-देना है। उनको मतलब सिर्फ अपनी कुर्सी से है।
इसे इस कहानी से भी समझा जा सकता है- किसी बाजार में एक बहेलिया तीतर बेच रहा था। उसके पास एक बड़ी सी जाली वाली बक्से में बहुत सारे तीतर थे ..और एक छोटे से बक्से में सिर्फ एक तीतर। किसी ग्राहक ने उससे पूछा एक तीतर कितने का है? तो उसने जवाब दिया, एक तीतर की कीमत 40 रुपये है।