बुआ-भतीजा
अखिलेश ने किए तेवर नर्म, दिखाई हरी झंडी
-मायावती का नाम सम्मान से लिए जाने के दिए निर्देश
-फिलहाल सपा से डबल हैं बसपा की लोकसभा सीटें
-कांग्रेस की कोशिश अब रंग लाती दिख रही
हरिमोहन विश्वकर्मा, लखनऊ। प्रदेश का राजनीतिक माहौल ऐसा बनता लग रहा है कि अखिलेश यादव और मायावती इंडिया गठबंधन के बैनर तले इकट्ठे हो सकते हैं। कांग्रेस लम्बे समय से इसके लिए प्रयासरत है।
अखिलेश की मंगलवार को गत विधायक दल की बैठक के बाद बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो के प्रति बदले सुरों से यह कयास लगाए जा रहे हैं, जो सच भी हो सकते हैं। क़ल तक मायावती की परछाई से भी बचने वाले अखिलेश ने आखिरकार कह दिया है कि उन्हें बसपा के गठबंधन में आने पर कोई एतराज नहीं है।
बात इतनी ही नहीं है, बल्कि बसपा सुप्रीमो का जिक्र करते समय उन्होंने अपने विधायकों से सम्मान सूचक शब्द जोड़ने की भी सलाह दी है। ऐसा तब है, ज़ब दोनों नेताओं के बीच पिछले कुछ समय से बहुत ही तीखी बयानबाजी हुई है। सच बात ये है कि पिछले कुछ समय से गठबंधन की स्थिति में 65 सीटों पर सपा के चुनाव लड़ने की रट पर अड़े अखिलेश 60 लोकसभा सीटों तक आ गए हैं और अगर बसपा भी गठबंधन में प्रवेश करती है तो सपा को 35- 40 लोकसभा सीटों से ही काम चलाना पड़ेगा। क्योंकि बसपा के पास फिलहाल 10 तो सपा के पास मात्र 5 लोकसभा सीटें ही हैं।
उधर राष्ट्रीय लोकदल भी 8 लोकसभा सीटों से कम पर राजी नहीं है, जिसके लिए पुराने और विश्वस्त दल होने के नाते अखिलेश सहमत हैं। कांग्रेस निरन्तर इसके लिए प्रयासरत है कि बसपा अपने दलित वोट बैंक के कारण गठबंधन में होना ही चाहिए। कांग्रेस नेताओं ने इसके लिए सपा को मनाने की निरंतर कोशिश की है। कहा तो यह तक जा रहा है कि अगर सपा इस पर सहमत न हो तो वह गठबंधन को छोड़कर जा भी सकती है।
उधर मायावती अब भी गठबंधन में जाने पर अपने पत्ते खोलने को राजी नहीं हैं, लेकिन समझा जा रहा है कि अगर ऐसा होता है तो वह बिहार की तर्ज पर ही प्रदेश में सपा के बराबर सीटें ही चाहेगी। इसके पीछे दो वज़ह हैं, एक तो सपा के मुकाबले उसकी वर्तमान लोकसभा सीट डबल हैं तो यादव वोट के मुकाबले दलित, ख़ासकर जाटव वोट पर उसकी पकड़ अब भी मजबूत है। दरअसल, मंगलवार से पहले तक सपा बसपा को इंडिया गठबंधन में शामिल किए जाने की सख्त विरोधी थी।
कांग्रेस की ओर से ऐसी कोशिशें होने पर उसने गठबंधन से अलग होने तक की धमकी दी। जबकि बसपा प्रमुख भविष्य में पड़ने वाली संभावित जरूरतों को लेकर इंडिया गठबंधन की पार्टियों को नसीहत देती रही। अंदर की बात ये भी है कि बसपा के कुछ नेता भी इंडिया गठबंधन में शामिल होने के लिए बेकरार हैं और वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए उनकी सुनना मायावती की मज़बूरी है।
हालांकि मायावती पार्टी वर्करों की सलाह पर राजनीति करने वाली नेता नहीं रहीं, लेकिन भाजपा की स्थिति देखते हुए बसपा को भी यह लग रहा है कि आज नहीं तो क़ल विपक्षी दलों को एक होना ही पड़ेगा। वैसे भी 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरह से मायावती ने एकतरफा गठबंधन तोड़ने का एलान किया था, वह भाजपा-विरोधी दलित मतदाताओं के एक वर्ग को काफी नागवार गुजरा था। वह चाहते थे कि यह महागठबंधन बने रहना चाहिए। सुनने में ये भी आ रहा है कि अखिलेश को भी अहसास है कि 2019 में बसपा के 10 सीटें जीतने के बाद भी महज 5 सीटें जीतने वाली समाजवादी पार्टी का मायावती पर दोषारोपण करना गलत था। फिर
अखिलेश यादव भी दलित वोटरों का साथ खोना नहीं चाहते। बहरहाल, अगर बसपा इस समय गठबंधन में आती है तो स्थितियां प्रदेश में बदल भी सकती हैं। ऐसे में भाजपा नेतृत्व का प्रदेश में 73+ का नारा भोथरा भी साबित हो सकता है।