2019 में ‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ और अब ‘आर्टिकल 370’ बॉलीवुड की मंशा क्या है?
बॉलीवुड और भारतीय राजनीति के बीच संबंध लंबे समय से जिज्ञासा और चर्चा का विषय रहे हैं। लेकिन फिल्मों का इस्तेमाल चुनाव प्रचार के उद्देश्य से करना एक नई परिघटना है जिसका आगमन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी-नीत भाजपा सरकार बनने के बाद हुआ है।
यह “उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक” थी, जो 2019 आम चुनाव से पहले प्रदर्शित हुई थी और पाकिस्तान को सबक सिखाने के उद्देश्य से चलाए जा रहे चुनाव प्रचार का हिस्सा बनी। पाँच साल बाद, अब 2024 में “आर्टिकल 370” है जो लोगों को यह याद दिलाने के लिए है कि मोदी ने कैसे कश्मीरियों को अधीन बनाया।
फिल्म “उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक” ने दर्शकों को पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य ऑपरेशन की अपनी प्रस्तुति से अचंभित किया और मोदी के राष्ट्रवादी प्रचार की अनुगूँज बनी। फिल्म की सफलता की सराहना वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने अंतरिम बजट सत्र में की जिससे इसके वोटर सेंटीमेंट पर संभावित प्रभाव का संकेत मिलता है।
अब, थ्रिलर “आर्टिकल 370” ने कश्मीर के विशेष दर्जे को रद्द करने के कदम, जिसका खुद मोदी ने मजबूत अनुमोदन किया था, को ड्रामाई अंदाज में प्रस्तुत किया है। लेकिन फिल्म के खुल्लम-खुल्ला राजनीतिक संदेश की आलोचना हो रही है और आरोप लग रहे हैं कि सरकार राजनीतिक फायदे के लिए सिनेमा का दुरुपयोग कर रही है।
“आर्टिकल 370” दो मजबूत महिला किरदारों पर केंद्रित है जो कश्मीर में आतंकवाद से निबटने की जटिलताओं से जूझ रही हैं। इन दो किरदारों में एक खुफिया अधिकारी है, जो यामी गौतम ने निभाया है, कश्मीर का स्वायत्त दर्जा किरदार की आतंकवाद से निबटने की राह में बाधा है। दूसरा किरदार प्रियमनी स्वामीनाथन का है जो प्रधानमंत्री कार्यालय में वरिष्ठ अधिकारी हैं। हालांकि फिल्म अनुच्छेद 370 हटाने के सरकार के कारणों का समर्थन करती है लेकिन इसकी आलोचना इसके विकृत ऐतिहासिक नज़रिए और व्यापक असर की अनदेखी करने के कारण हो रही है।
फिल्म कश्मीर में कुछ घटनाओं को शामिल करती है जिनमें पुलवामा हमला, जिसमें 40 सीआरपीएफ जवान मारे गए थे, हिजबुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वानी मुठभेड़ के बाद अशांति से लेकर भारतीय गृह मंत्री का संसद में भाषण और सरकार का 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 हटाना और पहले जो कोई न कर सका ऐसा संवैधानिक प्रावधान हटाने के लिए मोदी की तारीफ शामिल है।
फिल्म कश्मीर में 2017 में घटी उस घटना को भी सही करार देती है जिसमें भारतीय सेना के एक अधिकारी ने एक व्यक्ति को अपनी सर्विस जीप से बांधा था और पथराव करने वालों के खिलाफ मानव ढाल की तरह इस्तेमाल किया था। वास्तव में, उस मेजर को एक जांच में दोषी पाया गया था लेकिन फिल्म ने उस घटना का महिमामंडन किया है और दर्शकों से तालियाँ बटोरी हैं।
आलोचकों के अनुसार ऐसा राजनीतिक प्रचारात्मक सिनेमा बॉलीवुड के उन मूल्यों से विचलन का प्रतिनिधित्व करता है जिनके तहत मनोरंजन को सामाजिक टिप्पणी के साथ जोड़कर पेश किया जाता था। “दो बीघा जमीन” और “मदर इंडिया” जैसी फिल्में आज़ादी के बाद की चुनौतियों को दर्शाती थीं और देशभक्तिपूर्ण गीतों से राष्ट्रीय मनोबल को भी मजबूत करती थीं। लेकिन हाल के समय में फिल्में प्रचार का औज़ार बन चुकी हैं जो सरकारी एजेंडा से जुड़ा है।
“आर्टिकल 370” जैसी फिल्मों की सफलता भारतीय दर्शकों की हकीकत और कल्पना के बीच धुंधली पड़ती रेखाओं के संदर्भ में भावुकता का शिकार होने की आशंका को रेखांकित करती है। यह प्रचलन और सरकार या अवाम को नाराज करने के डर ने बॉलीवुड को हिन्दुत्व की लकीर पर चलने और कलात्मक ईमानदारी व स्वतंत्रता को खतरे में डालने पर मजबूर किया है।
वरिष्ठ पत्रकार योगेश पवार फिल्म उद्योग के सोचने को मजबूर करने वाला सिनेमा बनाने से अंधविश्वास और सवाल न करने वाले नागरिकों की मानसिकता को बढ़ाने वाला सिनेमा बनाने तक के परिवर्तन पर रौशनी डालते हैं। राजनीति और सिनेमा का अंतर्संबंध समाज में कला की भूमिका और रचनात्मक अभिव्यक्ति और राजनीतिक प्रभाव में संतुलन पर महत्वपूर्ण सवाल उठता है।
ऐसे जटिल परिदृश्य में, यह आवश्यक है कि मनोरंजन और प्रचार में फर्क किया जाए और बॉलीवुड में कथा सुनाने की ईमानदारी बनाए रखी जाए। “आर्टिकल 370” जैसी फिल्में कुछ लोगों को पसंद आ सकती हैं लेकिन सार्वजनिक चर्चा और सामुदायिक संबंधों पर इनके प्रभाव को कम करके नहीं आंकना चाहिए। इसलिए भी अधिक गहरे और जिम्मेदार फिल्म निर्माण की आवश्यकता को बल मिलता है।
ऐसे समय में जब सिनेमा जनमत को आकार दे रहा हो, यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि कलात्मक स्वतंत्रता और ईमानदारी के सिद्धांतों का पालन किया जाए ताकि राजनीतिक फायदे की बलिवेदी पर बॉलीवुड की आत्मा की आहुति दिए जाने का जोखिम न हो।”
बॉलीवुड और भारतीय राजनीति के बीच संबंध लंबे समय से जिज्ञासा और चर्चा का विषय रहे हैं। लेकिन फिल्मों का इस्तेमाल चुनाव प्रचार के उद्देश्य से करना एक नई परिघटना है जिसका आगमन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी-नीत भाजपा सरकार बनने के बाद हुआ है।
यह “उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक” थी, जो 2019 आम चुनाव से पहले प्रदर्शित हुई थी और पाकिस्तान को सबक सिखाने के उद्देश्य से चलाए जा रहे चुनाव प्रचार का हिस्सा बनी। पाँच साल बाद, अब 2024 में “आर्टिकल 370” है जो लोगों को यह याद दिलाने के लिए है कि मोदी ने कैसे कश्मीरियों को अधीन बनाया।
फिल्म “उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक” ने दर्शकों को पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य ऑपरेशन की अपनी प्रस्तुति से अचंभित किया और मोदी के राष्ट्रवादी प्रचार की अनुगूँज बनी। फिल्म की सफलता की सराहना वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने अंतरिम बजट सत्र में की जिससे इसके वोटर सेंटीमेंट पर संभावित प्रभाव का संकेत मिलता है।
अब, थ्रिलर “आर्टिकल 370” ने कश्मीर के विशेष दर्जे को रद्द करने के कदम, जिसका खुद मोदी ने मजबूत अनुमोदन किया था, को ड्रामाई अंदाज में प्रस्तुत किया है। लेकिन फिल्म के खुल्लम-खुल्ला राजनीतिक संदेश की आलोचना हो रही है और आरोप लग रहे हैं कि सरकार राजनीतिक फायदे के लिए सिनेमा का दुरुपयोग कर रही है।
“आर्टिकल 370” दो मजबूत महिला किरदारों पर केंद्रित है जो कश्मीर में आतंकवाद से निबटने की जटिलताओं से जूझ रही हैं। इन दो किरदारों में एक खुफिया अधिकारी है, जो यामी गौतम ने निभाया है, कश्मीर का स्वायत्त दर्जा किरदार की आतंकवाद से निबटने की राह में बाधा है। दूसरा किरदार प्रियमनी स्वामीनाथन का है जो प्रधानमंत्री कार्यालय में वरिष्ठ अधिकारी हैं। हालांकि फिल्म अनुच्छेद 370 हटाने के सरकार के कारणों का समर्थन करती है लेकिन इसकी आलोचना इसके विकृत ऐतिहासिक नज़रिए और व्यापक असर की अनदेखी करने के कारण हो रही है।
फिल्म कश्मीर में कुछ घटनाओं को शामिल करती है जिनमें पुलवामा हमला, जिसमें 40 सीआरपीएफ जवान मारे गए थे, हिजबुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वानी मुठभेड़ के बाद अशांति से लेकर भारतीय गृह मंत्री का संसद में भाषण और सरकार का 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 हटाना और पहले जो कोई न कर सका ऐसा संवैधानिक प्रावधान हटाने के लिए मोदी की तारीफ शामिल है।
फिल्म कश्मीर में 2017 में घटी उस घटना को भी सही करार देती है जिसमें भारतीय सेना के एक अधिकारी ने एक व्यक्ति को अपनी सर्विस जीप से बांधा था और पथराव करने वालों के खिलाफ मानव ढाल की तरह इस्तेमाल किया था। वास्तव में, उस मेजर को एक जांच में दोषी पाया गया था लेकिन फिल्म ने उस घटना का महिमामंडन किया है और दर्शकों से तालियाँ बटोरी हैं।
आलोचकों के अनुसार ऐसा राजनीतिक प्रचारात्मक सिनेमा बॉलीवुड के उन मूल्यों से विचलन का प्रतिनिधित्व करता है जिनके तहत मनोरंजन को सामाजिक टिप्पणी के साथ जोड़कर पेश किया जाता था। “दो बीघा जमीन” और “मदर इंडिया” जैसी फिल्में आज़ादी के बाद की चुनौतियों को दर्शाती थीं और देशभक्तिपूर्ण गीतों से राष्ट्रीय मनोबल को भी मजबूत करती थीं। लेकिन हाल के समय में फिल्में प्रचार का औज़ार बन चुकी हैं जो सरकारी एजेंडा से जुड़ा है।
“आर्टिकल 370” जैसी फिल्मों की सफलता भारतीय दर्शकों की हकीकत और कल्पना के बीच धुंधली पड़ती रेखाओं के संदर्भ में भावुकता का शिकार होने की आशंका को रेखांकित करती है। यह प्रचलन और सरकार या अवाम को नाराज करने के डर ने बॉलीवुड को हिन्दुत्व की लकीर पर चलने और कलात्मक ईमानदारी व स्वतंत्रता को खतरे में डालने पर मजबूर किया है।
वरिष्ठ पत्रकार योगेश पवार फिल्म उद्योग के सोचने को मजबूर करने वाला सिनेमा बनाने से अंधविश्वास और सवाल न करने वाले नागरिकों की मानसिकता को बढ़ाने वाला सिनेमा बनाने तक के परिवर्तन पर रौशनी डालते हैं। राजनीति और सिनेमा का अंतर्संबंध समाज में कला की भूमिका और रचनात्मक अभिव्यक्ति और राजनीतिक प्रभाव में संतुलन पर महत्वपूर्ण सवाल उठता है।
ऐसे जटिल परिदृश्य में, यह आवश्यक है कि मनोरंजन और प्रचार में फर्क किया जाए और बॉलीवुड में कथा सुनाने की ईमानदारी बनाए रखी जाए। “आर्टिकल 370” जैसी फिल्में कुछ लोगों को पसंद आ सकती हैं लेकिन सार्वजनिक चर्चा और सामुदायिक संबंधों पर इनके प्रभाव को कम करके नहीं आंकना चाहिए। इसलिए भी अधिक गहरे और जिम्मेदार फिल्म निर्माण की आवश्यकता को बल मिलता है।
ऐसे समय में जब सिनेमा जनमत को आकार दे रहा हो, यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि कलात्मक स्वतंत्रता और ईमानदारी के सिद्धांतों का पालन किया जाए ताकि राजनीतिक फायदे की बलिवेदी पर बॉलीवुड की आत्मा की आहुति दिए जाने का जोखिम न हो।”
(रोहिणी सिंह का लेख ‘कश्मीर टाइम्स’ से साभार। अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार महेश राजपूत ने किया है।)
नोट- ये लेखक के अपने विचार हैं।