September 16, 2024 |

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अजब-गजब न्यूज : पश्चिम बंगाल के गांव के दो टोलों के सम्मान की लड़ाई लड़ता है बुलबुल पक्षी

Sachchi Baten

करीब 400 वर्षों से चली आ रही है बुलबुल लड़ाने की पंरपरा

झारखंड की सीमा पर स्थित है प. बंगाल का गोपीवल्लभपुर गांव

जिस गांव का बुलबुल लड़ाई में हारता है, जीतने वाले गांव की बात माननी पड़ती है उसे

 

बासुदेब करन, बहरागोड़ा (झारखंड)। झारखंड, प. बंगाल व ओडिशा की सीमा पर स्थित बहरागोड़ा से सटे पश्चिम बंगाल के गोपीबल्लवपुर गांव के दो टोलों के सम्मान की लड़ाई बुलबुल नामक पक्षी लड़ता है। वहां श्री श्री राधाकृष्ण मंदिर परिसर में हर वर्ष मकर संक्रांति के दिन इसका आयोजन होता है।

यहां बुलबुल लड़ाई की यह परंपरा करीब 400 वर्षों से चली आ रही है। आज भी इस जमाने के युवा इस बुलबुल लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं, जोश एवं उमंग के साथ अपने-अपने बुलबुल को लड़ाते हैं।

गोपीबल्लवपुर के 2 टोला उत्तरपारा एवं दक्षिणपाड़ा के बीच में आत्म सम्मान की यानी प्रतिष्ठा की यह लड़ाई होती है। दोनों टोलों से 50-50 बुलबुल लाए जाते हैं। फिर दोनों टोलों के लोग आमने-सामने बैठते हैं। जजमेंट के लिए जज सामने बैठे रहते हैं।

जज के सामने उत्तर पाड़ा का एक बुलबुल एवं दक्षिण पाड़ा (टोला) का एक बुलबुल छोड़ा जाता है। जिस पाड़ा का बुलबुल हार जाता है, उस टोले के हारे हुए बुलबुल के झूंटी को कैंची से काट दिया जाता है। ऐसा करके उस बुलबुल काे हार स्वीकार कराया जाता है। साथ ही उसे इसके ही माध्यम से चिन्हित भी किया जाता है, ताकि उसे दोबारा लड़ाई में न उतारा जा सके।

जिस टोला से अधिक संख्या में बुलबुल जीतते हैं, उस टोले को विजेता घोषित किया जाता है। जीतने वाले टोले को कमेटी की ओर से पुरस्कृत भी किया जाता है। यह लड़ाई देखने के लिए बड़ी संख्या में लोगों का हुजूम जुटता है।

इस बुलबुल लड़ाई के लिए हर वर्ष मकर संक्रांति के एक महीना पहले दोनों टोला के उत्तरपाड़ा एवं दक्षिण पाड़ा के लोग  पश्चिम बंगाल के डेबरा, एगरा एवं विभिन्न जगहों में जाकर काफी मेहनत से बुलबुल पकड़ते हैं। उन्हें एक महीना तक विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री सेब, केला ,दूध की छाली एवं पौष्टिक खाद्य देकर ताकतवर बनाते हैं।

मकर संक्रांति के दिन सुबह से कोई भोजन नहीं दिया जाता है। दोपहर 12 बजे के बाद बुलबुल लड़ाई मंदिर प्रांगण में शुरू होती है। भूखे बुलबुल के सामने दोनों टोला के लोग केला के ऊपर शहद लगाकर परोसा जाता है। भूखे दोनों बुलबुल केला देखते ही खाने के लिए टूट पड़ते हैं। केला खाने के लिए ही दोनों में लड़ाई शुरू हो जाती है। 10 से 15 मिनट तक दोनों बुलबुल की लड़ाई चलती है। लड़ते-लड़ते जो बुलबुल थक जाता है या लड़ाई से भागने लगता है। उसे पराजित मान लिया जाता है। यह सिलसिला 50-50 बुलबुल की लड़ाई तक जारी रहती है।

इस बुलबुल लड़ाई का जजमेंट करने वाले तपन कुमार देहुरी ने कहा कि वह करीब 20 वर्षों से इस बुलबुल लड़ाई की जजमेंट करते आ रहे हैं। वह खुद भी अपना बुलबुल लड़ाते हैं। यह परंपरा आगे भी आने वाले पीढ़ी बचा कर रखे, इस पर प्रयास जारी रहेगा। इस संघर्ष में किसी प्रकार की कोई औजार का प्रयोग नहीं किया जाता है। किसी बुलबुल का खून नहीं बहता है। सिर्फ सम्मान की लड़ाई है।


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